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________________ सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा' - स्वामी श्री शरणानन्दजी जीवन का अध्ययन करनेपर यह विदित होता है कि समस्त जीवन दो भागों में विभाजित है-प्रवृत्ति और निवृत्ति । यद्यपि उन दोनों भागों का उद्देश्य एक है; क्योंकि जीवन एक है; परन्तु उद्देश्यपूर्ति के लिये साधन दृष्टि से दो भागों में विभाजन हो सकता है । प्रत्येक प्रवृत्ति का उद्गमस्थान देहाभिमान तथा विद्यमान राग है । प्रत्येक प्रवृत्ति के अन्त में निवृत्ति का आना स्वाभाविक है; क्योंकि प्रवृत्ति से प्राप्त शक्ति का व्यय होता है और निवृत्ति द्वारा पुनः शक्ति का संचय होता है । विद्यमान राग की निवृत्ति में ही प्रवृत्ति का सदुपयोग निहित है और नवीन राग की उत्पत्ति न होने तथा प्रवृत्ति की सामर्थ्य प्राप्त करने के लिये ही निवृत्ति अपेक्षित है। अब हमें अपनी प्रवृत्तियों का निरीक्षण करना है कि हमारी प्रवृत्तियां सुखभोग की आसक्ति तथा देहाभिमान को पुष्ट करने में हैं अथवा विद्यमान राग की निवृत्ति में । जिन प्रवृत्तियों के द्वारा हम वस्तु, व्यक्ति आदि से अपने सुख-सम्पादन की आशा करते हैं, वे सभी देहाभिमान को पुष्ट करती हैं और हमें लोभ, मोह आदि दोषों में प्राबद्ध करती हैं । अतः ऐसी प्रवृत्तियों के द्वारा प्रवृत्ति की सार्थकता सिद्ध नहीं होती, अपितु दोषों की ही वृद्धि होती है, जिससे हम जड़ता . और शक्तिहीनता में आबद्ध हो जाते हैं। स्वामी श्री शरणानन्द जी वस्तुतः प्रज्ञाचक्षु थे। उनके 'जीवन दर्शन,' 'संत-समागम', 'दुःख का प्रभाव' तथा 'दर्शन और नीति' ग्रन्थों के विभिन्न स्थलों से सेवा, करुणा आदि सर्वहितकारी प्रवृत्तियों से सम्बद्ध अंश यहां संकलित हैं। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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