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________________ सेवा-धर्म [ 247 के लिए रोजगार-धन्धे का प्रबन्ध करके उनके रोटी के सवाल को हल करना, और कुरीतियों, कुसंस्कारों तथा बुरी आदतों से जर्जरित एवं पतनोन्मुख मनुष्य समाज के सुधारार्थ सभा-सोसाइटियों को कायम करना और उन्हें व्यवस्थित रूप से चलाना, ये सब उसी दया प्रधान प्रवृत्तिरूप सेवा धर्म के अंग हैं। पूज्यों की पूजा - भक्ति - उपासना के द्वारा अथवा भक्तियोग - पूर्वक जो अपनी आत्मा का उत्कर्ष सिद्ध किया जाता है वह सब भी मुख्यतया प्रवृत्तिरूप सेवाधर्म का अंग है । इस प्रवृत्तिरूप सेवाधर्म में भी जहाँ तक अपने मन, वचन और कार्य से सेवा का सम्बन्ध है वहीं तक किसी कोड़ी-पैसे की जरूरत नहीं पड़ती। जहाँ सेवा के लिए दूसरे साधनों से काम लिया जाता है वहाँ ही उसकी जरूरत पड़ती है । और इस तरह यह स्पष्ट है कि अधिकांश सेवाधर्म के अनुष्ठान के लिए मनुष्य को टके-पैसे की जरूरत नहीं है । जरूरत है अपनी चित्तवृत्ति और लक्ष्य को शुद्ध करने की, जिसके बिना सेवाधर्म बनता ही नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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