SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 246 ] सकारात्मक अहिंसा समर्थ नहीं हूँ। यदि मैं दाता होता तो इसे पहले से क्यों न देता ? लोग भ्रमवश मुझे व्यर्थ ही दाता समझते हैं, इससे मुझे शरम आती है और मैं नीचे नयन किये रहता हूँ ? देखिये, कितना ऊँचा भाव है। प्रात्म-विकास को अपना लक्ष्य बनाने वाले मानवों की ऐसी ही परिणति होती है । अस्तु । लक्ष्यशुद्धि के साथ इस सेवाधर्म का अनुष्ठान हर कोई अपनी शक्ति के अनुसार कर सकता है। नौकर अपनी नौकरी, दुकानदार दुकानदारी, वकील वकालत, मुख्तार मुख्तारकारी, मुहर्रिर मुहर्रिरी, ठेकेदार ठेकेदारी, प्रोहदेदार ओहदेदारी, डाक्टर डाक्टरी, हकीम हिकमत, वैद्य वैद्यक, शिल्पकार शिल्पकारी, किसान खेती तथा दूसरे पेशेवर अपने-अपने उस पेशे का कार्य और मजदूर अपनी मजदूरी करता हुआ उसो में से सेवा का मार्ग निकाल सकता है । सबके कार्यों में सेवाधर्म के लिये यथेष्ट अवकाश है-गुंजाइश है। सेवाधर्म में 'दया' प्रधान है । दूसरों के दुःखों-कष्टों का अनुभव करके, उनसे द्रवीभूत होकर, उन्हें दूर करने के लिए मन-वचनकायकी जो प्रवृत्ति है, व्यापार है-उसका नाम 'दया' है । अहिंसाधर्म का अनुष्ठाता जहां अपनी ओर से किसी को दुःख-कष्ट नहीं पहुँचाता, वहाँ दयाधर्म का अनुष्ठाता दूसरों के द्वारा पहुँचाए गए दुःख-कष्टों को भी दूर करने का प्रयत्न करता है। यही दोनों में प्रधान अन्तर है। अहिंसा यदि सुन्दर पुष्प है तो दया को उसकी सुगन्ध समझना चाहिए। __ दया में सक्रिय परोपकार, दान, वैय्यावृत्त्य, धर्मोपदेश और दूसरों के कल्याण की भावनाएँ शामिल हैं । प्रज्ञान से पीड़ित जनता के हितार्थ विद्यालय-पाठशालाएँ खुलवाना, पुस्तकालय-वाचनालय स्थापित करना, रिसर्च इन्स्टीट्यूटों का, अनुसन्धान प्रधान संस्थाओं का---जारी रहना, वैज्ञानिक खोजों को प्रोत्तेजन देना तथा ग्रन्थनिर्माण और व्याख्यानादि के द्वारा अज्ञानान्धकार को दूर करने का प्रयत्न करना, रोग से पीड़ित प्राणियों के लिए औषधालयों-चिकित्सालयों की व्यवस्था करना, बेरोजगारी अथवा भूख से संतप्त मनुष्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy