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________________ सेवा-धर्म [ 245 और उसके लिए बहुत कुछ आत्मबलि व अपने लौकिक स्वार्थों की माहुति देनी पड़ती है । पूर्ण सावधानी ही पूर्णसिद्धि की जननी है। धर्म की पूर्णसिद्धि हो पूर्ण प्रात्मविकास के लिये गारण्टी है और यह प्रात्मविकास ही सेवाधर्म का प्रधान लक्ष्य है, उद्देश्य है अथवा ध्येय है। मनुष्य का लक्ष्य जब तक शुद्ध नहीं होता तब तक सेवाधर्म उसे कुछ कठिन और कष्टकर जरूर प्रतीत होता है। वह सेवा करके अपना अहसान जतलाता है, प्रति सेवा की-प्रत्युपकार की वांछा करता है, अथवा अपनी तथा दूसरों की सेवा की मापतौल किया करता है और जब उसकी मापतौल ठीक नहीं उतरती, अपनी सेवा से दूसरों की सेवा कम जान पड़ती है-अथवा उसकी वह वांछा ही पूरी नहीं होती और न दूसरा आदमी उसका अहसान ही मानता है, तो वह एकदम झुझला उठता है, खेदखिन्न होता है, दुःख मानता है, सेवा करना छोड़ देता है और अनेक प्रकार के राग-द्वषों का शिकार बनकर अपनी प्रात्मा का हनन करता है । सेवा की लक्ष्य शुद्धि के होते ही यह सब कुछ बदल जाता है, सेवाधर्म एकदम सुगम और सुखसाध्य बन जाता है, उसके करने में आनन्द ही आनन्द प्राने लगता है और उत्साह इतना बढ़ जाता है कि उसके फलस्वरूप लौकिक स्वार्थों की सहज ही में बलि चढ़ जाती है और जरा भी कष्ट-बोध होने नहीं पाता-इस दशा में जो भी किया जाता है, अपना कर्तव्य समझकर खुशी से किया जाता है और उसके साथ में प्रतिसेवा, प्रत्युपकार अथवा अपने आदर-सत्कार या अहंकार की कोई भावना न रहने से भविष्य में दुःख, उद्वेग तथा कषाय भावों की उत्पत्ति का कोई कारण ही नहीं रहता; और इसलिये सहज ही में आत्म-विकास सध जाता है । ऐसे लोग यदि किसी को दान भी करते हैं तो नीचे नयन करके करते हैं और उसमें अपना कर्तत्व नहीं मानते । किसी ने पूछा "पाप ऐसा क्यों करते हैं ?" तो वे उत्तर देते हैं देनेवाला और है, मैं समरथ नहिं देन । लोग भरम मो करत हैं, यातें नीचे नैन ।। अर्थात् -देनेवाला कोई और ही है, मैं खुद कुछ भी देने के लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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