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सकारात्मक अहिंसा
प्रायः सभी समान होते हैं। उनकी विश्वबन्धुत्व की भावना में किसी का अपकार या अप्रिय आचरण कोई बाधा नहीं डालता । “अप्रियमपि कुर्वाणो यः प्रियः प्रिय एव सः" इस उदार भावना से उनका आत्मा सदा ऊँचा उठा रहता है। वे तो सेवाधर्म के अनुष्ठान द्वारा अपना विकास सिद्ध किया करते हैं, और इसी से सेवाधर्म के पालन में सब प्रकार से दत्तचित्त होना अपना कर्तव्य समझते हैं।
वास्तव में, पैदा होते ही जहां हम दूसरों से सेवाएँ लेकर उनके ऋणी बनते हैं वहाँ कुछ समर्थ होने पर अपनी भोगोपभोग की सामग्री जुटाने में, अपनी मान-मर्यादा की रक्षा में, अपनी कषायों को पुष्ट करने में और अपने महत्त्व या प्रभुत्व को दूसरों पर स्थापित करने की धुन में अपराध भी कुछ कम नहीं करते हैं । इस तरह हमारा आत्मा परकृत उपकार-भार और स्वकृत अपराध-भार से बराबर दबा रहता है। इन भारों के हल्का होने के साथ आत्मा के विकास का भी सम्बन्ध है । लोकसेवा से यह भार हल्का होकर आत्मविकास की सिद्धि होती है। इसलिए सेवा को परमधर्म कहा गया है और वह इतना परम गहन है कि कभी-कभी तो योगियों के द्वारा भी अगम्य हो जाता है। उनकी बुद्धि चकरा जाती है। वे भी उसके सामने घुटने टेक देते हैं, और गहरी समाधि में उतरकर उसके रहस्य को खोजने का प्रयत्न करते हैं । लोकसेवा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देने पर भी उन्हें बहुधा यह कहते हुए सुनते हैं
"हा दुटुकयं! हा दुट्ठभा सयं! चितियं च हा दुटु!
अतो अंतो डज्झम्मि पच्छत्तावेण वेयतो ॥" मन-वचन-काय की प्रवृत्ति में जहां थोडी-सी भी प्रमत्तता, असावधानी अथवा त्रुटि लोकहित के विरुद्ध दीख पड़ती है वहाँ उसी समय उक्त प्रकार के उद्गार उनके मुंह से निकल पड़ते हैं और वे उनके द्वारा पश्चात्ताप करते हुए अपने सूक्ष्म अपराधों का भी नित्य प्रायश्चित किया करते हैं । इसीसे यह प्रसद्ध है कि
सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।" । सेवाधर्म की साधना में, निःसन्देह, बड़ी सावधानी की जरूरत है
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