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सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा
[ 249 परंतु जिन प्रवृत्तियों में दूसरों का हित तथा प्रसन्नता निहित है, वे प्रवृत्तियाँ विद्यमान राग की निवृत्ति करने में समर्थ हैं और उनके अन्त में स्वभाव से ही वास्तविकता की जिज्ञासा जाग्रत होती है। जिज्ञासा नवीन राग को उत्पन्न नहीं होने देती, अपितु सहज निवृत्ति को जन्म देती है, जो विकास का मूल है । सहज निवृत्ति में प्रावश्यक सामर्थ्य स्वतः प्राप्त होती है।
रागरहित होने के लिये सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सहज निवृत्ति साधनरूप है, साध्य नहीं । अतः हमें अपने में से 'मैं सर्वहितैषी हूँ', 'मैं अचाह हूँ' अथवा 'मुझे अपने लिये संसार से कुछ नहीं चाहिये' यह अहंभाव भी गला देना चाहिये। यह तभी सम्भव होगा जब सर्वहितकारी प्रवृत्ति होनेपर भी अपने में करनेका अभिमान न हो और चाहरहित होनेपर भी 'मैं चाहरहित हूँ' ऐसा भास न हो । कारण कि अहंभाव के रहते हुए वास्तव में कोई अचाह हो नहीं सकता; क्योंकि सेवा तथा त्याग का अभिमान भी किसी राग से कम नहीं है। सूक्ष्म राग कालांतर में घोर राग में प्राबद्ध कर देता है। राग का प्रभाव तभी हो सकता है जब दोष की उत्पत्ति न हो और गुण का अभिमान न हो; क्योंकि अभिमान के रहते हुए अनन्त से अभिन्नता सम्भव नहीं है और उसके बिना काई भी वीतराग हो ही नहीं सकता। कारण कि सीमित अहंभाव के रहते हुए राग का अत्यन्त प्रभाव नहीं हो सकता।
सर्वहितकारी प्रवृत्ति ही वास्तविक निवृत्ति की जननी है क्योंकि सर्वात्मभाव दृढ़ होनेपर ही निवृत्ति आती है और सर्वहितकारी प्रवृत्ति से ही सर्वात्मभाव की उपलब्धि होती है। अपने ही समान सभी के प्रति प्रियता उदय हो जाने पर ही सर्वहितकारी प्रवृत्ति की सिद्धि होती है । सर्वहितकारी प्रवृत्ति वास्तव में किये हुए संग्रह का प्रायश्चित्त है, कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं है और निवृत्ति प्राकृतिक विधान है । उसे अपनी महिमा मान लेना मिथ्या अभिमान को ही जन्म देना है, और कुछ नहीं । अतः प्रवृत्ति और निवृत्ति को ही जीवन मत मान लो। प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप साधन से वास्तविक जीवन की प्राप्ति हो सकती है।
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