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________________ 242 ] सकारात्मक हिंसा है; क्योंकि स्व- परहित-साधन की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक अपना कर्त्तव्य समझकर जो निष्काम कर्म अथवा कर्मत्याग किया जाता है वह सच्चा सेवाधर्म है । जब पूज्य महात्माओं की सेवा के लिए गरीबों की, दीन-दुःखियों की, पीड़ितों पतितों की, असहायों-असमर्थों की, अज्ञों और पथभ्रष्टों की सेवा अनिवार्य है-उस सेवा का प्रधान अंग है, बिना इसके वह बनती ही नहीं - तब यह नहीं कहा जा सकता और न कहना उचित ही होगा कि "छोटों असमर्थी अथवा दीन-दुःखियों आदि की सेवा में क्या धरा है ?" वस्तुतः यह सेवा तो अहंकारादि दोषों को दूर करके श्रात्मा को ऊँचा उठाने वाली है, तद्गुण-लब्धि के उद्देश्य को पूरा करने वाली है और हर तरह से प्रात्मविकास में सहायक है, इसलिए परमधर्म है और सेवाधर्म का प्रधान अंग है । जिस धर्म के अनुष्ठान से अपना कुछ भी आत्मलाभ न होता हो वह तो वास्तव में धर्म ही नहीं है । इसके सिवाय अनादिकाल से हम निर्बल, असहाय, दीन, दुःखित, पतित, मार्गच्युत और अज्ञ जैसी अवस्थाओं में ही अधिकतर रहे हैं और उन अवस्थाओं में हमने दूसरों की खूब सेवाएँ ली हैं, तथा सेवासहायता की प्राप्ति के लिये निरन्तर भावनाएँ भी की हैं, और इसलिये उन अवस्थाओं में पड़े हुए अथवा उनमें से गुज़रने वाले प्राणियों की सेवा करना हमारा और भी ज्यादा कर्तव्यकर्म है, जिसके पालन के लिये हमें अपनी शक्ति को ज़रा भी नहीं छिपाना चाहिये । उसमें जी चुराने अथवा आना-कानी करने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये । इसी को यथाशक्ति कर्त्तव्य का पालन कहते हैं । एक बच्चा पैदा होते ही कितना निर्बल और असहाय होता है और अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कितना दूसरों पर निर्भर रहता अथवा प्राधार रखता है । दूसरे जन उसकी खिलानेपिलाने, उठाने बिठाने, लिटाने सुलाने, ओढ़ने- बिछाने, दिल बहलाने, सर्दी-गर्मी आदि से रक्षा करने और शिक्षा देने दिलाने की जो भी सेवाएँ करते हैं वे सब उसके लिए प्राणदान के समान है । समर्थ होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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