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सेवा-धर्म
[ 241 पादाचार्यने 'सर्वार्थसिद्धि' के मंगलाचरण ('मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि) में "वन्दे तद्गुणलब्धये" पद के द्वारा व्यक्त किया है । तद्गुण लब्धि के लिये तद्रूप आचरण की जरूरत है और इसलिये जो तद्गुण-लब्धि की इच्छा करता है वह पहले तद्रूप आचरण को अपनाता है-अपने आराध्य के अनुकूल वर्तन करना अथवा उसके नक्शेकदम पर चलना प्रारम्भ करता है। उसके लिये लोकसेवा अनिवार्य हो जाती है-- दीनों, दुःखितों, पीड़ितों, पतितों, असहायों, असमर्थों, अज्ञों और पथभ्रष्टों की सेवा करना उसका पहला कर्तव्यकर्म बन जाता है। जा ऐसा न करके अथवा उक्त ध्येय को सामने न रखकर ईश्वर-परमात्मा या पूज्य महात्माओं की भक्ति के कोरे गीत गाता है वह या तो दंभी है या ठग है। वह अपन को तथा दूसरों को ठगता है, या उन जड़ मशीनों की तरह अविवेको है जिन्हें अपनी क्रियाओं का कुछ भी रहस्य मालूम नहीं होता। इसलिए भक्ति के रूप में उसकी उछल-कूद तथा जयकारों का-जय-जय के नारों का-कुछ भी मूल्य नहीं है । वे सब दंभपूर्ण अथवा भावशून्य होने से बकरी के गले में लटकते हुए स्तनों (थनों) के समान निरर्थक होते हैं । उनका कुछ भी वास्तविक फल नहीं होता।
महात्मा गांधीजी ने कई बार ऐसे लोगों को लक्ष्य करके कहा है कि 'वे मेरे मुंह पर थूकें तो अच्छा, जो भारतीय होकर भी स्वदेशी वस्त्र नहीं पहनते और सिर से पैर तक विदेशी वस्त्रों को धारण किये हुए मेरी जय बोलते हैं। ऐसे लोग जिस प्रकार गांधीजी के भक्त अथवा सेवक नहीं कहे जाते बल्कि मजाक उड़ाने वाले समझे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग अपने पूज्य महापुरुषों के अनुकूल प्राचरण नहीं करते-अनुकूल आचरण की भावना तक नहीं रखते खुशी से विरुद्धाचरण करते हैं और उस कुत्सित आचरण को करते हुए पूज्य पुरुष की वंदनादि क्रिया करते तथा जय बोलते हैं, उन्हें उस महापुरुष का सेवक अथवा उपासक नहीं कहा जा सकता। वे भी उस पूज्य व्यक्ति का उपहास करने-कराने वाले ही होते हैं, अथवा यह कहना होगा कि वे अपने उस आचरण के लिए जड़ मशीनों की तरह स्वाधीन नहीं हैं और ऐसे पराधीनों का कोई धर्म नहीं होता । सेवाधर्म के लिए स्वेच्छापूर्वक कार्य का होना मावश्यक
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