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सकारात्मक अहिंसा
हूं, मेरे हाथ पापको ही प्रणामांजलि करने के निमित्त हैं, मेरे कान प्रापकी ही गुणकथा सुनने में लीन रहते हैं, मेरी आँखें आपके ही रूप को देखती हैं, मुझे जो व्यसन है वह भी आपकी ही सुन्दर स्तुतियों के रचने का है और मेरा मस्तक भी प्रापको ही प्रणाम करने में तत्पर रहता है, इस प्रकार की चूकि मेरी सेवा है मैं निरन्तर ही प्रापका इस तरह सेवन किया करता हूँ-इसीलिये हे तेजःपते ! (केवलज्ञानस्वामिन् ! ) मैं तेजस्वी हूँ, सुजन हूँ और सुकृती (पुण्य
वान्) हूँ।'
यहाँ पर किसीको यह न समझ लेना चाहिये कि सेवा बड़ों कीपूज्य पुरुषों एवं महात्मानों की होती है और उसी से कुछ फल भी मिलता है, छोटों-असमर्थों अथवा दीन-दुखियों आदि की सेवा में क्या धरा है ? ऐसा समझना भूल होगा । जितने भी बड़े, पूज्य, महात्मा अथवा महापुरुष हैं वे सब छोटों, असमर्थों, असहायों एवं दीन-दुःखियों की सेवा से ही हुए हैं । सेवा ही सेवक को सेव्य बनाती अथवा ऊँचा उठाती है और इसलिये ऐसे महान् लोक-सेवकों की सेवा अथवा पूजा-भक्ति का यह अभिप्राय नहीं कि हम उसका कोरा गुणगान किया करें अथवा उनकी ऊपरी (प्रौपचारिक) सेवा-चाकरी में ही अपने को लगाये रक्खें । उन्हें तो अपने व्यक्तित्व के लिये हमारी सेवा की जरूरत भी नहीं है । कृतकृत्यों को उसकी जरूरत भी क्या हो सकती है ? इसीलिए स्वामी समन्तभद्रने कहा है -- "न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे"-अर्थात् हे भगवन् ! पूजा-भक्ति से आपका कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि आप वीतरागी हैं-राग का अंश भी आपकी आत्मा में विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसी की पूजा-सेवा से पाप प्रसन्न होते । वास्तव में ऐसे महान् पुरुषों की सेवा-उपासना का मुख्य उद्देश्य उपकारस्मरण और कृत-ज्ञता-व्यक्तीकरणके साथ तद्गुणलन्धि-उनके गुणों की संप्राप्ति होती है। इसी बात को श्री पूज्य
समन्तभद्र की देवागम, युक्त्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र नाम की स्तुतियाँ बड़े ही महत्व की एवं प्रभावशालिनी हैं और उनमें सूत्ररूप से जैनागम अथवा वीरशासन भरा हुआ है।
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