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________________ सेवा-धर्म [ 239 भावना को निकाल देने से वे सब थोथे और निर्जीव हो जाते हैं। सेवाधर्म ही उन सब में, अपनी मात्रा के अनुसार, प्राणप्रतिष्ठा करने वाला है। इसलिये सेवाधर्म का महत्त्व बहुत ही बढ़ा-चढ़ा है और वह एक प्रकार से अवर्णनीय है । अहिंसादिक सब धर्म अङ्ग अथवा प्रकार हैं और वह सब में व्यापक है। ईश्वरादिक की पूजाभक्ति अथवा उपासना भी उसी में शामिल (गर्भित) है, जो कि अपने प्रज्य एवं उपकारी पुरुषों के प्रति किये जाने वाले अपने कर्तव्य के पालनादि स्वरूप होती है। इसी से उसको 'देवसेवा' भी कहा गया है। किसी देव अथवा धर्म-प्रवर्तक के गुणों का कीर्तन करना, उसके शासन को स्वयं मानना, सदुपदेश को अपने जीवन में उतारना और शासन का प्रचार करना, यह सब उस देव अथवा धर्म-प्रवर्तक की सेवा है और इसके द्वारा अपनी तथा अन्य प्राणियों की जो सेवा होती है वह सब इससे भिन्न दूसरी आत्मसेवा अथवा लोकसेवा है । इस तरह एक सेवा में दूसरी सेवाएँ भी शामिल होती हैं। स्वामी समन्तभद्र ने अपने इष्टदेव भगवान महावीर के विषय में सेवा का और अपने को उनकी फलप्राप्ति का जो उल्लेख एक पद्य में किया है वह पाठकों के जानने योग्य है और उससे उन्हें देवसेवा के कुछ प्रकारों का बोध होगा और साथ ही यह भी मालूम होगा कि सच्चे हृदय से और पूर्ण तन्मयता के साथ की हुई वीर-प्रभु की सेवा कैसे उत्तम फलको फलती है। इसी से उस पद्य को उनके 'स्तुतिविद्या' नामक ग्रन्थ (जिनशतक) से यहाँ उद्धृत किया जाता है : सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते हस्तावंजलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते । सुस्तुत्यां व्यसनं शिरोनतिपर सेवेशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृतो तेनैव तेजःपते ॥ स्तुतिविद्या-114 ... इसमें बतलाया है कि -- 'हे भगवन् ! आपके मत में अथवा आपके ही विषय में मेरी सुश्रद्धा है-अन्ध श्रद्धा नहीं, मेरी स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाये हुए है, मैं पूजन भी आपका ही करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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