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सेवा-धर्म
॥ श्री युगल किशोर मुख्तार अहिंसाधर्म, दयाधर्म, दशलक्षणधर्म, रत्नत्रयधर्म सदाचारधर्म, अथवा हिन्दूधर्म, मुसलमानधर्म, ईसाईधर्म, जैनधर्म, बौद्धधर्म इत्यादि धर्मनामों से हम बहुत कुछ परिचित हैं; परन्तु 'सेवाधर्म' हमारे लिये अभी तक बहुत ही अपरिचित-सा बना हुआ है । हम प्रायः समझते ही नहीं कि सेवाधर्म भी कोई धर्म है अथवा प्रधान धर्म है। कितनों ही ने तो सेवाधर्म को सर्वथा शूद्रकर्म मान रक्खा है, वे सेवक को गुलाम समझते हैं और गुलामी में धर्म कहां ? इसी से उनकी तद्रूप संस्कारों में पली हुई बुद्धि सेवाधर्म को कोई धर्म अथवा महत्त्व का धर्म मानने के लिये तैयार नहीं। वे समझ ही नहीं पाते कि एक भाड़े के सेवक, अनिच्छापूर्वक मजबूरी से काम करने वाले परतन्त्र सेवक और स्वेच्छा से अपना कर्तव्य समझकर सेवाधर्म का अनुष्ठान करनेवाले अथवा लोकसेवा में दत्तचित्त रहनेवाले स्वयंसेवक में कितना बड़ा अन्तर है। ऐसे लोग सेवाधर्म को शायद किसी नये धर्म की सृष्टि समझते हों, परन्तु ऐसा समझना ठीक नहीं है। वास्तव में सेवाधर्म सब धर्मों में ओत-प्रोत है और सब में प्रधान है। बिना इस धर्म के सब धर्म निष्प्राण हैं, निःसत्त्व हैं और उनका कुछ भी मूल्य नहीं है। क्योंकि मन-वचन-काय से स्वेच्छा एवं विवेकपूर्वक ऐसी क्रियाओं का छोड़ना जो किसी के लिये हानिकारक हों और ऐसी क्रियाओं का करना जो उपकारक हों 'सेवा-धर्म' कहलाता है।
'मेरे द्वारा किसी जीव को कष्ट अथवा हानि न पहुँचे, मैं सावद्ययोग से विरक्त होता हूँ', लोकसेवा की ऐसी भावना के बिना अहिंसा धर्म कुछ भी नहीं रहता; और, 'मैं दूसरों का दुःख-कष्ट दूर करने में कैसे प्रवृत्त हूँ' इस सेवा-भावना को यदि दया-धर्म से निकाल दिया जाय तो फिर वह क्या अवशिष्ट रहेगा ? इसे सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं । इसी तरह दूसरे धर्मों का हाल है। सेवाधर्म की
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