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सकारात्मक अहिंसा
___इस तरह कर्मों की वृत्ति-परावृत्ति नहीं, परन्तु कर्म कर्म का जीव के ज्ञान-चारित्र पर होने वाला असर ही बन्धन और मोक्ष का कारण है। जीवन काल में मोक्ष प्राप्त करने का अर्थ है ऐसी उच्च स्थिति का आदर्श जिस स्थिति के प्राप्त होने के बाद उस व्यक्ति के ज्ञानचारित्र पर ऐसा असर पैदा हो कि उसमें पुनः अशुद्धि घुस सके ।'
इसके लिए कर्त्तव्य कर्मों का विवेक तो अवश्य करना पड़ेगा। उदाहरणार्थ अपकर्म नहीं करने चाहिए, सत्कर्म ही करने चाहिए, कर्तव्य रूप कर्म तो करने ही चाहिये, अकर्तव्य कर्म छोड़ने ही चाहिये । चित्तशुद्धि में सहायक सिद्ध होने वाले कर्म दान, तप और भक्ति के कर्म करने चाहिये इत्यादि । इसी तरह कर्म करने की रीति में भी विवेक करना पड़ेगा। जैसे, ज्ञान पूर्वक कर्म करना, सावधानीपूर्वक करना, सत्य अहिंसा आदि नियमों का पालन करते हुए करना, निष्काम भाव से अथवा अनासक्ति भाव से करना इत्यादि । परन्तु यह कल्पना गलत है कि कर्मों से परावृत्ति होने पर कर्मक्षय होता है। कर्तव्य रूप कर्म परावृत्त होने की अपेक्षा कदाचित सकाम भाव से अथवा आसक्ति भाव से किये हुए सत्कर्मों से अधिक कर्म-बन्धन होने की पूरी सम्भावना है। इसकी अधिक सविस्तार चर्चा के लिये गीता मंथन नाम पुस्तक पढ़ें।
(संसार और धर्म से साभार)
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