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________________ कर्मक्षय और प्रवृत्ति [ 231 मालूम होता है, मानों कर्म नाम की हर एक के पास एक तरह की पूंजी है। पांच हजार रुपये ट्रंक में रखे हुए हों और उनमें किसी तरह की वृद्धि न हो, परन्तु उनका खर्च होता रहे, तो दो-चार वर्ष में या पच्चीस वर्ष में तो वे सब अवश्य खर्च हो जायेंगे । परन्तु यदि मनुष्य उन्हें किसी कारोबार में लगाता है तो उनमें कमीबेशी होगी और संभव है कि पाँच हजार के लाख भी हो जायें या लाख न होकर उल्टा कर्ज हो जाय । यह घाटा भी चिंता और दुःख उत्पन्न करता है । सामान्य रूप से मनुष्य ऐसी चिन्ता और दुःख की संभावना से घबराते नहीं और लाख होने की संभावना से प्रसन्न नहीं होते । वे न तो रुपयों का क्षय करना चाहते हैं और न रुपयों के बंधन में पड़ने से दुःखी होते हैं । निवृत्ति-मार्गी साधु भी मन्दिरों में और पुस्तकालयों में बढ़ने वाले परिग्रह से चिंतातुर नहीं होते । परन्तु कर्म नाम की पूंजी की हमने कुछ ऐसी कल्पना की है मानो वह एक बड़ी गठरी है और उसको खोलकर, जैसे बने वैसे उसे खत्म कर डालने में ही मनुष्य का श्रेय है, कर्म का व्यापार करके उससे लाभ उठाने नहीं । कर्म को पूंजी की तरह समझने के कारण उसे खत्म करने की ऐसी कल्पना पैदा हुई है || 1 परन्तु कर्म का बंधन रुपयों की गठरी जैसा नहीं है । और वृत्ति परावृत्ति ( श्रथवा स्थूल प्रवृत्ति - निवृत्ति) से यह गठरी घटती-बढ़ती नहीं है । जगत् में कोई भी क्रिया हो चाहे जानने में हो या अनजान में, वह विविध प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म परिणाम एक ही समय में या भिन्न-भिन्न समय में, तुरन्त या कालान्तर में एक ही साथ या रहरहकर पैदा करती है । इन परिणामों में से एक परिणाम कर्म करने वाले के ज्ञान और चारित्र के ऊपर किसी तरह का रजकण जितना ही असर उपजाने का होता है । करोड़ों कर्मों के ऐसे करोड़ों असरों के परिणाम स्वरूप हर एक जीव का ज्ञान - चारित्र का व्यक्तित्व बनता बनता है । यह निर्माण यदि उत्तरोतर शुद्ध होता जाय और ज्ञान, धर्म, वैराग्य इत्यादि की ओर अधिकाधिक झुकता जाये तो उसके कर्म का क्षय होता है, ऐसा कहा जायेगा । यदि वह उत्तरोतर अशुद्ध होता जाय तो उसके कर्म का संचय होता है, ऐसा कहा जायेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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