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कर्मक्षय और प्रवृत्ति
श्री किशोरदास घ. मश्रुवाला
एक सज्जन मित्र लिखते हैं : कुछ लोग कहते हैं कि कर्म का संपूर्ण क्षय हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, और कर्म से निवृत्त हुए बिना कर्मक्षय की संभावना नहीं है । इसलिये निवृत्ति मार्ग ही आत्मज्ञान अथवा मोक्ष का मार्ग है । क्योंकि जो भी कर्म किया जाता है, उसका फल अवश्य मिलता है । अर्थात् मनुष्य जब तक कर्म में प्रवृत्त रहेगा तब तक, वह चाहे अनासक्ति से कर्म करता हो तो भी कर्मफल के भार से मुक्त नहीं हो सकता । इससे कर्मबंधन का आवरण हटने के बदले उलटा घना होगा । इसके फलस्वरूप उसकी साधना खंडित होगी । लोक-कल्याण की दृष्टि से भले ही अनासक्ति वाला कर्मयोग इष्ट हो, परन्तु उससे प्रात्मज्ञान की साधना सफल नहीं होगी। इस विषय में मैं आपके विचार जानना चाहता हूँ।" . मेरी राय में कर्म, कर्म का बंधन और क्षय, प्रवृत्ति और निवृत्ति, आत्मज्ञान और मोक्ष इत्यादि की हमारी कल्पनाएँ बहुत ही अस्पष्ट हैं । अतएव इस संबंध में हम उलझन में पड़ जाते हैं और साधनों में गोते लगाते रहते हैं।
इस संबंध में पहले हमें यह समझ लेना चाहिये कि शरीर, वाणी और मन की क्रिया मात्र कर्म है। कर्म का यदि हम यह अर्थ लेते हैं तो जब तक देह है तब तक कोई भी मनुष्य कर्म करना बिलकुल छोड़ नहीं सकता। कथाओं में आता है उस तरह कोई मुनि चाहे तो वर्ष-भर तक निर्विकल्प समाधि में निश्चेष्ट होकर पड़ा रहे, परन्तु जिस क्षण वह उठता है उस क्षण वह कुछ-न-कुछ कर्म अवश्य करेगा। इसके अलावा यदि हमारी कल्पना ऐसी हो कि हमारा व्यक्तित्व देह से पूरे जन्म-जन्मान्तर पाने वाला जीवरूप है, तब तो देह के बिना भी वह क्रियावान् रहेगा । यदि कर्म से निवृत्त हुए बिना कर्मक्षय
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