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सकारात्मक अहिंसा
पुरुषों की आज्ञा का रूप नहीं लेगी। जिसमें सत्य निष्ठा है और अहिंसा की सार्वभौम दृष्टि जिसे मंजूर है, उसके लिए अंदरूनी प्रेरणा से जो बात मान्य होगी सो मान्य । हर एक जमाने के मानवहितचिन्तक तटस्थ तपस्वियों की नसीहत ही धर्मजीवन के लिए अन्तिम प्रमाण होगी और अन्तिम प्राधार हृदय के संतोष का ही होगा । 'शुद्धहृदयेन हि धर्म जानाति ।' इसलिये केवल प्राचीन धर्मग्रंथ
और धर्मकारों के वचन से बाहर नहीं सोचने का स्वभाव छोड़कर हमें वैज्ञानिक ढंग से शुद्ध निर्णय पर आना होगा। ...... केवल आहार और आजीविका के साधन के क्षेत्र से अपने को मर्यादित न करके अहिंसा-जैसे सार्वभौम, सर्वकल्याणकारी सिद्धान्त का उपयोग और विनियोग, युद्ध और शांति-जैसे जगत्व्यापी सवालों का सर्वोदयी हल ढूँ ढ़ने में ऐसा करना जरूरी हो गया है। वंशसंघर्ष, वर्गसंघर्ष आदि विश्वव्यापी भयानक संघर्षों का निराकरण करके समन्वय की स्थापना करने के लिये अहिंसा की मदद कैसी हो सकती है, यह देखने के लिये कृषि-तुल्य चिन्तन और विज्ञानवीरों की प्रयोग-परायणता एकत्र करनी होगी । ऐसा मिलान करने से ही संजीवनी विद्या प्राप्त होगी।
इस दिशा में प्रारम्भ करना ही सब से महत्त्व की बात है। प्रारम्भ होने पर भगवान् की ओर से बुद्धियोग मिलेगा और योग्य व्यक्तियों का सहयोग तथा दिशा-दर्शन भी मिलेगा। पूर्व के और पश्चिम के मनीषियों ने आज तक जो चिन्तन किया है, अनुभव पाया है, और प्रयोग भी किये हैं, उनको एकत्र लाने से भविष्य की दिशा स्पष्ट हो सकेगी। किसी ने ठीक ही कहा है कि प्राचीनों की योगविद्या और आधुनिक काल की प्रयोग-विद्या दोनों के समन्वय से सत्ययुग की और धर्मयुग की स्थापना हो सकेगी। यह समय ऐसे नये प्रस्थान का है ।
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