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सकारात्मक अहिंसा
प्राणि विज्ञान बढ़ेगा वैसे-वैसे हमारा अहिंसा का प्राचार धर्म भी अधिकाधिक सूक्ष्म बनेगा । विशिष्ट प्राणी में या वस्तु में जीव है या नहीं है इसकी खोज तो होनी ही चाहिये । जैन तीर्थंकर और पूर्व प्राचार्यों के दिनों में जीव-सृष्टि का विज्ञान जहां तक बढ़ा था, उसके अनसार उन्होंने अहिंसक धर्म का प्राचार-धर्म कैसा-कैसा होता है, यह बताया । वे लोग अपने जमाने के विज्ञान-निष्ठ थे ।
आज उसी प्राचीन वैज्ञानिक दृष्टि का हमने रूपान्तर कर दिया है वचननिष्ठा में और रूढिनिष्ठा में।
इधर आज की दुनिया में, विशेषकर पश्चिम में जीव-विज्ञान बहुत कुछ आगे बढ़ा है । जीव किसे कहें, किस चीज में जीव तत्त्व कितना है, उसका विकास कैसे होता है, जीवों को मरण क्यों आता है, मरण से बचाने के लिये क्या-क्या करना चाहिये आदि अनेक बातें नये ढंग से, नई दृष्टि से सोची जाती है और सोचनी चाहिये । यह है अनुसंधान का विषय, न कि तीर्थंकरों के, गणधरों के, आचार्यों के प्राप्त वचनों का अर्थ करने का। अगर हम वैज्ञानिक दृष्टि छोड़ कर व्याकरण, तर्क और दृष्टि समन्वय के आधार पर चर्चा ही करते रहे तो वह दृष्टि वैज्ञानिक न रह कर वकीलों के जैसी चर्चात्मक ही बन जायेगी।
__इसलिये हमें जीवविज्ञान में, मनोविज्ञान में और समाजविज्ञान में अनुसंधान करना होगा। प्रयोग और चिन्तन चला कर गहरा अनुसंधान करना पड़ेगा और वह भी हमारी निजी मौलिक दृष्टि से।
पश्चिम के प्रयोग-वीरों ने जो आज तक अनुसंधान किया है, उससे हम लाभ उठायेंगे जरूर, लेकिन उनका प्रस्थान ही हमें मान्य नहीं है। पश्चिम में वनस्पतिविज्ञान, कृमि-कीट आदि सूक्ष्म प्राणीविज्ञान, आदि विज्ञान के अनेक विभाग अथवा क्षेत्र दिन-पर-दिन प्रगति करते जा रहे हैं, लेकिन उनका प्रस्थान ही गलत है। सामान्य तौर पर नीचे दिये गये सिद्धान्त ही उनके बुनियादी सिद्धान्त हैं।
(1) जिस तरह मिट्टी, पत्थर, पानी, सोना, चांदी, लोहा आदि
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