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________________ अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान ] 223 इसी वृत्ति से ब्रह्मचर्य का पालन अहिंसा की साधना ही होगी। जीव को पैदा नहीं होने दिया तो उसे पैदा करके मरणाधीन बनाने के पाप से हम बच जायेंगे। करुणा इससे कुछ अधिक बढ़ती है। उसमें कुछ प्रत्यक्ष सेवा करने की बात आती है। प्राणियों को दुःख से बचाना, उनके भले के लिये स्वयं कष्ट उठाना, त्याग करना, संयम का पालन करना यह सब क्रियात्मक बातें अहिंसा में आ जाती हैं। आजकल जैन समाज में इसकी चिन्ता नहीं चलती कि हम हिंसा के दोष से कैसे बचें । जो कुछ जैनियों के लिये प्राचार बताया गया है उसका पालन करके लोग संतोष मानते हैं। धर्म बुद्धि जाग्रत है, लेकिन धार्मिक पुरुषार्थ कम है तो साधक अणुव्रत का पालन करेंगे। साधना वढ़ने पर दीक्षा लेकर उग्र व्रतो का पालन करेंगे । अब जिन लोगों ने जीवदया के अहिंसक आधार का विस्तार किया, उन लोगों ने अपने जमाने के ज्ञान के अनुसार बताया कि पानी गरम करके एकदम ठंडा करके पीना चाहिये। पाल, बैंगन जैसे पदार्थ नहीं खाने चाहिये । क्योंकि हर एक बीज के साथ और हए एक अंकुर के साथ जीवोत्पत्ति की सम्भावना होती है। एक आलू खाने से जितने अंकुर उतने जीवों की हत्या करने का पाप लगेगा। सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों की हत्या से बचने के लिये इतना सतर्क रहना पड़ता है कि वही जीवन-व्यापी साधना बना जाती है । पानी गरम करके एकदम ठंडा करना, मुंहपत्ती लगाना, शाम के बाद भोजन नहीं करना इत्यादि रीतिधर्म का विकास हुआ। शुरू-शुरू में यह सब वैज्ञानिक शोध-खोज थी। हमारा वैज्ञानिक ज्ञान जैसा बढ़ेगा उसके अनुसार हमारा अहिंसा का आकलन भी बढ़ेगा, बढ़ना चाहिये । उसके अनुसार आचार-धर्म में सूक्ष्मता भी आनी चाहिये । अगर अनुभव से कोई बात गलत साबित हुई तो पुराने आचार-धर्म बदलने भी चाहिये । अहिंसा धर्म जड रूढिधर्म नहीं है, वह वैज्ञानिक धर्म है। विज्ञान के द्वारा जैसे-जैसे हमारा जीव विज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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