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अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान
0श्री काका कालेलकर
जैन दृष्टि की जीवन-साधना में अहिंसा का विचार काफी सूक्ष्मता तक पहुंचा है। उसमें अहिंसा का एक पहलू है जीवों के प्रति करुणा और दूसरा है स्वयं हिंसा के दोष से बचने की उत्कट कामना । दोनों में फर्क है । करुणा में प्राणी के दुःख निवारण करने की शुभ कामना होती है। प्राणियों का दुःख दूर हो, वे सुखी रहें, उनके जीवनानुभव में बाधा न पड़े, इस इच्छा के कारण मनुष्य जीवों के प्रति अपना प्रेम बढ़ाता है, सहानुभूत बढ़ाता है और जितनी हो सके सेवा करने दौड़ता है। __ दूसरी दृष्टि वाला कहता है कि सृष्टि में असंख्य प्राणी पैदा होते हैं, जीते हैं, मरते हैं, एक-दूसरे को मारते हैं, अपने को बचाने की कोशिश करते हैं । यह तो सब दुनिया में चलेगा ही। हर एक प्राणी अपने-अपने कर्म के अनुसार सुख-दुःख का अनुभव करेगा। हम कितने प्राणियों को दुःख से बचा सकते हैं ? दुःख से बचाने का ठेका लेना या पेशा बनाना अहंकार का ही एक रूप है। इस तरह का ऐश्वर्य कुदरत ने या भगवान् ने मनुष्य को दिया नहीं है। मनुष्य स्वयं अपने को हिंसा से बचावे । न किसी प्राणी को मारे, मरावे या मारने में अनुमोदन देवे । अपने को हिंसा के पाप से बचाना यही है अहिंसा ।
इस दूसरी दृष्टि में यह भी विचार आ जाता है कि हम ऐसा कोई काम न करें कि जिसके द्वारा जीवों की उत्पत्ति हो और फिर उनको मरना पड़े । अगर हमने आस-पास की जमीन नाहक गीली कर दी, कीचड़ इकट्ठा होने दिया तो वहां कीट-सृष्टि होगी। पैदा होने के बाद उसे मरना ही है। वह सारा पाप हमारे सिर पर रहेगा । इसलिये हमारी ओर से जीवोत्पत्ति को प्रोत्साहन न मिले इतना तो हमें देखना ही चाहिये । यह भी अहिंसा की साधना है।
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