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________________ मनुष्य और सेवाधर्म [ 221 हो सकती। ऐक्य के अभाव में समाज का टिकना शक्य नहीं है। त्याग के बिना हममें उदात्तता नहीं आ सकती। उदात्तता के बिना हम एक-दूसरे के लिए सन्तोषपूर्वक थोड़ा-बहत कष्ट सहन नहीं कर सकते। संयम के अभाव में सच्चा त्याग नहीं सधेगा। और सच्चे त्याग के बिना संतोष का अनुभव नहीं होगा। संतोष के बिना प्रात्मकल्याण संभव नहीं है । ये सब गुण सेवाधर्म और कर्तव्य पर निष्ठा रहे बिना सिद्ध नहीं किये जा सकते । ये सब परस्पर ऐसे सम्बद्ध हैं कि इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं माना जा सकता। पूत्र के लिए हर तरह से कष्ट उठाना माता-पिता को कौन सिखाता है ? देश के लिए प्राण अर्पण करनेवाले, उसके लिए सदा दुःख भोगनेवाले, धर्म के लिए बलिदान देनेवाले, परिवार में एकदूसरे के लिए संतोष के साथ कष्ट सहनेवाले-इन सबको अपनी निष्ठा से ही ऐसा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। हमारा मानवजीवन इस निष्ठा पर ही चलता है। इस कष्ट-सहन में जहां बाधा आती है, जहां केवल स्वार्थवृत्ति से हम चलते हैं, वहां मानवता का विकास रुक जाता है। यदि हम चाहते हों कि यह विकास सदा होता रहे, तो हमें अपने प्रत्येक कर्म में कर्तव्य-निष्ठा और सेवा-भावना रखने का प्रयत्न करना चाहिये । जन्म से लेकर जीवन के अन्त तक मानव-जाति के सद्गुणों पर ही हमारे जीवन का आधार होता है। मानव-जाति में आज जो कुछ सुख, शांति, सन्तोष, आनन्द और उत्साह दिखाई देता है, उसका कारण हमारी मानवता अर्थात् हमारे सद्गुण हैं; और जो भी दुःख, आपत्ति और अनर्थ दिखाई देता है, उसका कारण हमारे दुर्गुण हैं । यह सब हमारे गुणों और दुर्गुणों, सेवावृत्ति और स्वार्थ, धर्म और अधर्म का ही परिणाम है। यह बात ध्यान में रखकर हम सबको अपने जीवन में सद्गुणों को, सेवाधर्म को महत्त्व प्रदान करना चाहिये । मानवता को अपने जीवन का आदर्श समझना चाहिये । इस बात पर ध्यान देंगे तो हम सब अवश्य सुखी होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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