________________
सकारात्मक अहिंसा
पुरुषों ने किया है । देश, काल और अवसर के अनुसार सेवा और सद्गुणों के महत्त्व का वर्णन उन्होंने अलग-अलग ढंग से किया है । त्याग के बिना सद्गुणों की वृद्धि नहीं होती; इतना ही नहीं, उसके बिना सद्गुण टिक ही नहीं सकते । इसलिए उन महापुरुषों ने बड़े प्राग्रह के साथ त्याग का उपदेश दिया है। एक और त्याग और दूसरी
र किसी का हित - ये दोनों बातें साधने की शक्ति प्रत्येक सद्गुण में होनी चाहिये । सद्गुण में यह शक्ति हो तो ही वह आत्म-कल्याणकारी और परोपकारी बनकर प्रभावशाली सिद्ध होता है । परहितकारी कार्य करते समय भी यदि हमारे चित में सेवाभाव न हो, तो उस कार्य द्वारा हमारी उन्नति होने का विश्वास नहीं किया जा सकता । क्योंकि उससे किसी समय हमारे मन में अहंकार उत्पन्न हो सकता है । कभी-कभी वह काम हम लाचारी से करते हैं और इसलिए हमारे मन का झुकाव उसे टालने की ओर होता है; और इस सम्बन्ध में हमसे कुछ भी करते न बने तो वह कार्य हममें जड़ता श्रथवा गुलामी की वृत्ति पैदा करता है । अतः किसी भी कार्य में आत्मकल्याण और परिहत जैसे दो उद्देश्य और सामर्थ्य हों, तो ही उससे हमारी और दूसरों की उन्नति हो सकती है । हमारे कार्य में, कर्म में, ऐसा सामर्थ्य उत्पन्न हो, इसके लिए हमारे मन में सेवाभाव होना चाहिये और यह भाव सदा बना रहे इसके लिए सेवाधर्म पर हमारी निष्ठा होना आवश्यक है ।
220 1
त्याग और कर्त्तव्य-निष्ठा
हमारे कर्म इस निष्ठा से होते रहें, तो हममें मानवता का विकास होता रहेगा और हमारा समाज मानव समाज के रूप में संसार में टिका रहेगा | योग्य कर्म के बिना जीवन चल ही नहीं सकता । शुद्ध विवेक के बिना उचित और अनुचित कर्म के बीच हम भेद नहीं कर सकेंगें । सेवाधर्म के बिना केवल कर्म से प्रात्म-कल्याण और परहित सिद्ध नहीं होगा । हम सेवाधर्म का पालन करें तो ही हमारे बीच सहकार रहेगा । हम सब एक-दूसरे के लिए उदात्त भावना से कष्ट न सहें, तो हममें प्रेम, विश्वास प्रादि भाव न तो उत्पन्न होंगे और न बढ़ेंगे। प्रेम, विश्वास आदि भावों के बिना ऐक्य की स्थापना नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org