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मनुष्य श्रीर सेवाधर्म
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सेवा की आवश्यकता रहती है । सेवाधर्म में निष्ठा रहे बिना सच्ची सेवा नहीं हो सकती । इस धर्म में सारे सद्गुणों का समावेश हो जाता है । सद्गुणों के कारण मानवता का विकास होता आया है । जगत् में जितने भी धर्म हैं, उन सबमें सद्भावनाओं और सद्गुणों को महत्त्व दिया गया है । और किसी भी सद्भावना या सद्गुण की जांच करें तो उसके साथ सेवा का ही सम्बन्ध दिखाई देगा । प्रेम, करुणा, मैत्री, बंधुभाव, सहकार की भावना, उदारता, परोपकारवृत्ति, समाज देश राष्ट्र आदि की भक्ति इन सबमें मुख्यतः सेवावृत्ति ही पाई जायेगी । सद्गुणों पर ही जगत् के कल्याण का आधार है । इससे हमें यह बोध मिलता है कि हममें परस्पर सेवाभाव होना चाहिये | यह सेवा भाव किसी जगह हमें माता-पिता के प्रेम और वात्सल्य में प्रकट होता दिखाई देगा, किसी जगह भाई-बहन के प्रेम अथवा मित्र के प्रेम के रूप में दिखाई देगा और किसी जगह दान, परोपकार, उदारता, करुणा, सहानुभूति, सहकार आदि गुणों द्वारा प्रकट होगा । किसी जगह वह पति-पत्नी के जीवन में प्रोत प्रोत हुआ दिखाई देगा | इस प्रकार अनुभव से पता चलेगा कि सारी मानवजाति सेवा भावना के आधार पर ही जीती है । इस भावना की शुद्धि और वृद्धि लिए मानव-जीवन में सेवा धर्म का महत्त्व समझना अत्यंत आवश्यक है ।
इस प्रकरण के प्रारंभ में ही कहा गया है कि दूसरे प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य में बुद्धि अधिक है, परन्तु उस बुद्धि के बल पर ही वह आज की श्रेष्ठता को नहीं पहुंचा है। बेशक, उसकी बुद्धि कुछ अंश तक इस श्रेष्ठता का कारण है । परन्तु सद्गुणों के रूप में बहुत हद तक व्यापक बने हुए सेवाभाव की वृद्धि मनुष्य में न हुई होती तो आज की श्रेष्ठता प्राप्त करना उसके लिए कभी संभव नहीं होता । मनुष्य जिस तरह बुद्धि-प्रधान प्राणी है, उसी तरह वह सामाजिक प्राणी भी है । समाज के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है । ' अस्तित्व नहीं है' से मेरा मतलब है कि जिस सांस्कृतिक अवस्था में आज वह है वह अवस्था उसके लिए संभव नहीं होती । उस सांस्कृतिक यवस्था की वृद्धि सेवाधर्म की निष्ठा के बिना नहीं हो सकती । ऐसी निष्ठा निर्माण करने और उसे दृढ़ बनाने का प्रयत्न आज तक अनेक महा
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