________________
218 ]
सकारात्मक अहिंसा
रहता है, अतः उसमें सेवा करने के तथा सेवा लेने के अवसर आते हैं। उनसे वह बच नहीं सकता । ऐसी पराधीन अवस्था को छोड़कर भी जीवन का विचार करें तो मालूम होता है कि कोई भी मनुष्य अपने अकेले के सामर्थ्य और शक्ति-बुद्धि से अपना जीवन नहीं चला सकता । इसी कारण से परिवार, ग्राम, समाज, देश, राष्ट्र-इस प्रकार एक से एक अधिक व्यापक मानव-संस्थायें बनती आयी हैं। इन सब में परस्पर सहकारवृत्ति और सेवाधर्म द्वारा परस्पर उपयोगी बनने का भाव हो, तो ही ये संस्थायें कार्यक्षम, समर्थ और स्थायी रह सकती हैं और मानव जाति की पीढ़ियां अधिकाधिक सुसंगठित, सुसंस्कृत, व्यवस्थित, तेजस्वी, क्रियाशील और उन्नत बन सकती हैं। इस सबका आधार हमारी सेवा-परायणता और सेवाधर्म की निष्ठा पर टिका होता है।
इस सेवाधर्म के आधार पर ही मनुष्य छोटे से बड़ा होता है। यह सेवाधर्म स्त्रियों में न होता, उनके हृदय में मातृत्व का स्थान न होता, तो जगत में मानवता का निर्माण ही न हा होता । इसी कारण से संसार में मातृत्व की इतनी महिमा मानी गई है। वात्सल्य के कारण ही उसे इतना महत्त्व प्रदान किया गया है। जीवन में जबजब कठिन अवसर पाते हैं, तब-तब उनमें से अपने को छुड़ाने के लिए हमें किसी करुणाशील, प्रेमल और समर्थ व्यक्ति की आवश्यकता महसूस होती है। ये सारे भाव वात्सल्य में हैं, और वह वात्सल्य माता में भरा होता है । बचपन में माता ही हमें सर्वस्व मालूम होती है । रोगी की दशा में भी मनुष्य को वात्सल्य की जरूरत मालूम होती है। इसलिए रोगी मनुष्य को वात्सल्यपूर्ण भाव से व प्रेम से, अपनी सेवा करने वाला व्यक्ति माता के समान प्रिय लगता है। परमेश्वर को कुछ संतों ने माता की, तो कुछ संतों ने पिता की उपमा दी है। इसका अर्थ यही है कि मनुष्य को जीवनभर मातृ-पितृ-भाव की, वात्सल्य की और प्रेमपूर्ण सेवा की जरूरत रहती है।
जीवनध्यापी सेवावृत्ति
जीवन के प्रथम क्षण से प्रारंभ करके अंतिम क्षण तक मनुष्य को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org