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________________ मनुष्य और सेवाधर्य [ बड़ा होता है, जैसे-जैसे उसके जीवन की आवश्यकतायें बढ़ती जाती हैं और उसका सम्बन्ध व्यापक होता जाता है, वैसे-वैसे माता के सिवा अन्य अलग-अलग व्यक्तियों के प्रेम, सहानुभूति, सेवा और सहकार की उसे जरूरत पड़ती है । इस प्रकार उसके जीवन के लिए दूसरों की सद्भावनाओं की भी आवश्यकता मालूम होने लगती है । इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते मनुष्य जब कुछ समर्थ हो जाता है, तब एक प्रोर वह दूसरों की सहानुभूति, प्रेम और सहकार स्वीकार करता है तो दूसरी ओर अपनी इन्हीं भावनाओं द्वारा दूसरों की सेवा करने योग्य भी बनता है । उस समय जैसे उसे दूसरों की सेवा लेनी पड़ती है, उसी तरह सेवावृत्ति से दूसरों की सहायता भी करनी पड़ती है । जिस दृष्टि से देखने पर हम सब मनुष्य – मानव जाति परस्पर प्रेम, करुणा, वात्सल्य, सेवाभाव आदि सद्भावनात्रों पर अपना जीवनव्यापार चलाते रहते हैं । हमारे सद्गुण ही हम सबके लिए परस्पर उपयोगी सिद्ध होते हैं । इस प्रकार मानव-जीवन एक-दूसरे की सहायता से चलता है । बचपन में हमसे बड़े और ज्ञानी लोगों की वात्सल्य, प्रेम आदि भावनाओं द्वारा हम सेवा लेते हैं, तो बड़ी उम्र में ये ही भावनायें अपनी सन्तान के प्रति रखकर हम उनकी सेवा करते हैं । इसी प्रकार बचपन में हमारी सार-संभाल करने वाले तथा अनेक प्रकार से हमारे कल्याण के लिए सतत प्रयत्न करने वाले लोग जब बूढ़े होते हैं तब हम कृतज्ञतापूर्वक उनकी सेवा करते हैं। मनुष्य बचपन में जैसे असमर्थ और पराधीन होता है, वैसे ही वृद्धावस्था में, रोगी अवस्था में और जीवन के अन्तिम काल में भी वह पराधीन हो जाता है । उस समय सेवा करने का उसका काल पूरा होता है और दूसरों से सेवा लेने का अवसर आता है । ऐसे समय प्रेम और कृतज्ञतापूर्वक उसकी सेवा करना वर्तमान पीढ़ी का धर्म हो जाता है । सेवा करने वाला वृद्ध हो जाता है तब उसे भी भावी पीढ़ी पर अवलम्बित रहना पड़ता है । जन्म से मनुष्य पराधीन होता है और जीवन के अन्त में भी वह पराधीन हो जाता है । बचपन में उसे पुरानी पीढ़ी से सेवा लेनी पड़ती है, बीच के काल में वह सेवा लेता है और दूसरों की सेवा करता है, और अन्तिम दिनों में उसे नई पीढ़ी से सेवा लेनी पड़ती है । इस तरह मानव-जीवन कभी स्वाधीन और कभी पराधीन Jain Education International 217 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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