SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 216 ] सकारात्मक अहिंसा है। उसका जीवन पूरी तरह माता पर अवलम्बित होता है । बाल्यकाल में माता का वात्सल्य और सेवावृत्ति ही उसके जीवन का मुख्य प्राधार होती है। इस दृष्टि से बाल्यकाल का विचार किया जाय तो हर तरह से और हर पहल से असमर्थ और पराधीन स्थिति में से निकाल कर माता ही बालक को धीरे-धीरे समर्थ और स्वाधीन बनाती है । जिसके लिए उसे बालक की हर प्रकार की सेवा करनी पड़ती है। रात-दिन उसे बालक की ओर ही सारा ध्यान लगाना पड़ता है। यह सब वात्सल्य के बिना नहीं हो सकता । प्रेम के बिना वात्सल्य नहीं टिक सकता और उत्कट भावना के बिना प्रेम नहीं टिक सकता। इस उत्कटता, प्रेम, सेवावृत्ति और वात्सल्य को यदि माता से अलग कर लें, तो मातृत्व के रूप में उसके पास बाकी क्या रह जायगा ? वह निरी स्त्री ही रह जायगी । जीवन की दृष्टि से केवल उसके स्त्री रूप का क्या मुल्य है ? सेवावृत्ति का विकास ___ इस दृष्टि से सोचें तो कहना पड़ेगा कि स्त्रियों में पाया जाने वाला मातृभाव और सेवाभाव सारे जगत् की गवा करता है। उनकी इन भावनाओं के कारण जगत् का पालन, पोषण, संगोपन और संवर्धन होता है। उनकी सेवा-भावना के कारण ही प्रत्येक पीढ़ी में मानवता पाती है । जगत् में आज तक जो बड़े-बड़े ज्ञानी-विज्ञानी, बड़े राजपुरुष, राजनीतिज्ञ, योद्धा, धर्म-संस्थापक, पैगम्बर अथवा अवतारी माने गये व्यक्ति हुए हैं, वे सब अपनी माता की सेवावृत्ति का लाभ उठाते-उठाते ही बड़े बने हैं। आधनिक समय के ऐसे बड़े पुरुष भी इस विषय में अपनी माताओं के ऋणी हैं । जन्म से जिसकी मां का अवसान हो जाता है, उसे भी अन्य किसी स्त्री के मातृत्व का आधार मिल जाता है। किसी-न-किसी की सेवा भावना से ही उसका पालन-पोषण होता है। इस दृष्टि से हममें से प्रत्येक स्त्री-पुरुष, मनुष्य मात्र, मातृत्व का ही ऋणी है । ज्यों-ज्यों बालक बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों उसे अपने पिता. भाई, बहन तथा निकट के सगेसम्बन्धियों के वात्सल्य, प्रेम और सेवाभाव का लाभ मिलने लगता है। इसके बिना उसका जीवन चल नहीं सकता। मनुष्य जैसे-जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy