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________________ 214 सकारात्मक अहिंसा और तीन ज्ञान के धनी द्रव्य तीर्थंकर का दान पाप का हेतु, कितना बड़ा अनर्थ है ? चिन्तन की कितनी दयनीयता है, कृपणता है । हाँ, तीर्थंकरों के दान का तो वह उच्च कोटि का स्वरूप है कि जिसकी तुलना में आज के महत्त्वाकांक्षियों का दान आ ही कहाँ सकता है ? उन महापुरुषों के दान में न कोई जान-पहचान का सम्बन्ध है, और न ही कोई यश-कीर्ति आदि की कामना है । जो प्राया सो ले गया । कौन ले गया ? क्या बोलकर ले गया, कोई विवरण नहीं है । बस दिया जा रहा है, लेने वाले ले रहे हैं । यह तो फलों से लदे हुए उस महा सहकार वृक्ष का दान है कि कोई जाए ले आए, न कोई हिसाब है न कोई गणना है और न ही किसी बात की प्रत्युपेक्षा है । अहो ! कहां वह त्रिलोकीनाथ का निःस्वार्थ अनवद्य दान और कहां आज का भारी सभाओं में लाउड स्पीकार पर जोर-जोर से तालियों की गड़गड़ाहट के साथ घोषित होने वाला विसर्जन । कुछ अल्पज्ञ ऐसे ही कह देते हैं कि तीर्थंकरों द्वारा दिया जाने वाला अर्थ कौनसा उसका होता है । वह तो इन्द्र का लोकपाल वैवमण दान के लिए स्वर्ण मुद्राओं का ढेर लगा देता है। प्रभु तो मात्र दिये जाते हैं । इसमें उनका क्या है ? यहाँ भी चिन्तन की अपेक्षा है । तोर्थकरों के महाशुभनाम प्रकृति के उदय से वह अमित धनराशि वहाँ एकत्रित होती है । वह धन किसी और का नहीं उनके परम-पुण्य परिपाक का परिणाम है । शालिभद्र के स्वर्गवासी पिता अपने पुत्र के लिये प्रतिदिन अद्भुत वैभव सामग्री से परिपूर्ण तेंतीस पेटियां उसके महल में पहुँचाते थे । क्या उस धन का स्वामी शालिभद्र नहीं था ? अवश्य था ही । इसी भाँति तीर्थंकरों के प्रबल पुण्योदय से समुपस्थित होने वाले धन पर स्वामित्व उनका ही था, पर जन समुदाय को त्याग का प्रत्यक्ष पथ दिखलाने के लिए प्रभु ने दान का तरीका अपनाया । सोचो-सोचो गहराई से सोचो ! सत्य का साथ दो ! भव्यों ! जब से जगे तभी से प्रभात । 'सत्यमेव जयते नानृतम्] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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