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तीर्थकरों का वर्षीदान क्या विसर्जन नहीं है ? .
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अनुकम्पादान का वर्णन है क्या ? इसी शंका का समाधान स्वयं टीकाकार करते हैं--"न कस्मिन्नपि सूत्रे प्रतिषिद्ध, प्रत्युत, देशनोद्वारेण राजप्रश्नीयोपांगे केशिनोपदेशितम् ।" अनुकम्पादान का किसी भी शास्त्र में प्रतिषेध नहीं किया गया है, बल्कि देशना द्वारा राजप्रश्नीय (रायप्पसे णीय) उपांग में स्वयं केशीस्वामी ने इसका उपदेश दिया है। जैसे "मा णं तुमं पएसी ! पुवि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि" इत्यादि । __इससे ज्यादा पाप आगम का प्रमाण क्या लेना चाहेंगे ? अंग सूत्रों में स्थानांग में वणित दश दानों में अनुकम्पादान स्पष्ट वर्णित है ही। वह यदि अशुभ बंध का हेतु होता तो प्रदेशी राजा ने दान शाला में दान देते हुए और अणुव्रत पौषध-उपवास का पालन करते हुए विचरूंगा, ऐसी केशी स्वामी के सामने प्रतिज्ञा क्यों की ? और उसी के अनुमोदन में केशी स्वामी ने क्यों कहा कि प्रदेशी ! रमणीय बनकर अरमणीय मत बनना। यानि जिस भांति तू अभी धर्म में तत्पर बना
है पीछे शिथिल मत बन जाना । इस पर इक्षु खेत आदि के चार - दृष्टांत दिए गए।
__हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि तीर्थंकरों का वार्षिक दान भिक्षु स्वामी सावध मानते हैं, उनके अनुयायी आज विसर्जन को संवर निर्जरा का हेतु मानते हैं । कैसी विडम्बना है ? कैसा भद्र जनता की बुद्धि के साथ खिलवाड़ है ? विसर्जन शब्द को भी एक ऐसा चोगा पहनाया है कि प्रश्नकर्ता को यह बड़े वाग्जाल से भ्रमित कर देता है। विसर्जन का अर्थ केवल धन के लिए नहीं है। विसर्जन क्रोध का, मान का, लोभ का, दुर्व्यसनों का तथा धन का भी होता है, पर हम पूछना चाहते हैं अपनी छाती पर हाथ रखकर स्पष्ट कहिए कि यह विसर्जन शब्द का प्रयोग क्या दान के स्थान पर नहीं किया गया ? क्या स्वामी जी ने भी कभी विसर्जन को संवर निर्जरा कहा है ? हमारा तो प्रश्न है कि किसी संस्था, समाज या सहायता के लिए किया गया धन का विसर्जन क्या संवर-निर्जरा, त्याग-अनासक्ति है ? यदि है, तो तीर्थंकरों के वर्षीदान को एकांत पाप बतलाना बुद्धिगम्य नहीं है, क्योंकि आज के तथाकथित धनी श्रावकों का विसर्जन तो एकान्त धर्म का हेतु है
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