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________________ 212 ] सकारात्मक अहिंसा जैसे दाणं अणुकंपाए दीणाणाहाण सत्तितो णेयं । तित्थंकर-नातेण साहूणं य पत्तबुद्धिए ।। दानं-वितरणम् अन्नादेः अनुकम्पया-दयया दीनानाथेभ्यः तत्र दीना: क्षीणविभवत्वाद् दैन्यं प्राप्ता: त एव सानाथ्यकारिरहिताः अनाथा अतस्तेभ्यः शक्तितो वित्तगतं सामर्थ्यम् आश्रित्य इत्यर्थः ज्ञेयं ज्ञातव्यम् । अथ दीनादीनामसंयतत्वात्, तद्दानस्य दोषपोषकत्वाद् असंगतं तद्दानम् इत्याशक्य आह-तीर्थंकरज्ञातेन जिनोदाहरणेन । तथाहिसंगतं दीनादि-दानं प्रभावनांगत्वात् जिनस्यैव । अथवा तीर्थंकरन्यायन निर्विशेषतया इत्यर्थः । तीर्थंकर-प्रमाणतो वा । तथाहि-न दीनादिदानं अविधेयं, जिनाचरितत्वात्, महाव्रतानुपालनवदिति । दीनानामनुकम्पा या तद्दानम् । अथ साधूनामपि किं तथैव इत्याशंकया आहसाधूनां संयतेभ्यः पात्रबुद्ध या ज्ञानादिगुणरत्नभाजनमेतदिति धिया भक्त्या इति गाथार्थः ।। अर्थ - दीन अनाथों को अनुकम्पा-दयाभाव से दान देना विहित है तीर्थंकरों के उदाहरण से । अथवा तीर्थंकरों को प्रमाण भूत मानते हुए उनके द्वारा प्राचरित होने के कारण यह दान संगत है और पाचरणीय है । संयत साधुओं को जो दान दिया जाता है, वह पात्र बुद्धि से दिया जाता है । ये मुनिवर्य गुण रत्नों के भाजन है, इस दृष्टि से इस भावना से दान दिया जाता है। यह गाथा का अर्थ है। इसी संदर्भ में और भी अनेक स्पष्ट उल्लेख हमें प्राचीन ग्रंथों से मिलते हैं। सवेहि पि जिणेहि दुज्जयतियरागदोसमोहेहि अणुकम्पादाणं सड्ढयाणं न कहिंपि पडिसिद्ध॥ अर्थ-सभी जिनेश्वर जो दुर्जय राग-द्वष-मोह से ऊपर उठ चुके हैं। उन्होंने श्रावकों के लिए कहीं भी अनुकम्पा दान का निषेध नहीं किया है, निषेध करने का तो प्रश्न ही नहीं उठ सकता, जब स्वयं जिनेश्वरों ने वार्षिक दान देकर दीनों का उद्धार किया है । यथा--'श्रीजिनेनापि सांवत्सरिकदानेन दीनोद्धारः कृत एव ।' यदि आप यह शंका करें कि टीका-भाष्य-चूणि आदि के वर्णनों को छोड़िये, पर कहीं. ग्यारह अंग, बारह उपांग आगमों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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