________________
तीर्थंकरों का वर्षीदान क्या विसर्जन नहीं है ?
[ 211 भाव से दिये जाने वाले दान को तो सावध पाप का हेतु बतलाते हैं पर विसर्जन को तेरापंथ के प्राचार्य त्याग, संवर, निर्जरा और अनासक्ति घोषित कर रहे हैं । यह कितना बडा छलावा है। भद्र जनता के साथ कितनी बडी धोखाधड़ी है । तीर्थंकरों का वर्षीदान तो अशुभ है पर जैन विश्वभारती, जय तुलसी फाउन्डेशन या किसी जैन-भवन आदि के लिए किया जाने वाला दान (विसर्जन) संवर-निर्जरा का हेतु है। थोड़ा भी चिन्तनशील व्यक्ति इस वाक् प्रपंच को पकड़े बिना · रह नहीं सकता। यह कहकर टालना भी बहाना मात्र है कि 'तीर्थकरों की तो अनादि-काल से परम्परा चली आ रही है कि वार्षिक दान तो वे देकर ही संयम ग्रहण करते हैं । पर हम पूछना चाहते हैं कि यह परम्परा क्यों ? सर्व विरति लेने से पूर्व करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का दान क्या जन-साधारण को ममत्व-त्याग की विधि सिखलाने के लिए नहीं है ? गीता भी कहती है -..
यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते । महापुरुष जो-जो आचरण करते हैं, इतर व्यक्ति सहजतया उसका आचरण करने लग जाते हैं। महामना जो कुछ प्रमाणित करते हैं, आम जनता उसका अनुकरण स्वतः करती है। अतः तीर्थंकरों का सांवत्सरिक दान सावद्य दान नहीं, बल्कि भव्य जनता के लिए ममत्वत्याग का जीता-जागता निदर्शन है। स्थानकवासी-मंदिर मागियों में
आज भी यह शब्द प्रचलित है कि श्रावकों ! कुछ ममत्व त्याग करो, अर्थात् जिस धन को अपनत्व के साथ जोड़ रखा है, उसका त्याग करो। यह जगत्प्रभु का परिग्रह-त्याग सिखाने का प्रयत्न है । मैं अपने सभी साथी संत-सतियों से सविनय अनुरोध करना चाहता हूँ कि आप इस यथार्थता को स्वीकारने में हिचकिचाहट न करें। क्योंकि प्रात्मा से तो आपका प्रबुद्ध मानस इसे शत-प्रतिशत स्वीकार कर चुका है फिर शब्दों में अभिव्यक्ति दें कि हम अनुकम्पा दान को शुभ दान के रूप में स्वीकार करते हैं। देखिए, तेरापंथ के जन्म से सैंकड़ों हजारों वर्ष पहले हमारे ज्योतिर्धर महामनीषी प्राचार्य स्पष्टतया स्वीकार कर चुके हैं। फिर उस यूथाधिप गन्धहस्ती के पथ पर हम उनके शिशु चलें तो कुछ भी शोचनीय नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org