SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 210 ] सकारात्मक अहिंसा तथा हैमी नाममाला में 'दानं त्यागो विसर्जनम्', 'दानमुत्सर्जनं त्यागः प्रदेशन-विसर्जने' इत्यादि नामों में दान का ही नाम त्याग और विसजन है फिर विसर्जन की ओट में दान क्यों अन्तर्हित किया जा रहा है ? हाँ, श्री भिक्षु स्वामी के सिद्धान्तानुसार संयती के सिवा अन्य को दान पाप-मूलक माना गया है । इसलिए श्री भिक्षु की मान्यता को अक्षरशः प्रमाणित मानने वाले आप महानुभावों के लिए दान शब्द उभारते कुछ मन कंपित होना स्वाभाविक है। सहज अन्तःकरण उद्वेलित होता है कि कल तक हम अनुकम्पा आदि दानों को एकान्त पाप मानते थे, आज दान के नाम से करोड़ों कैसे एकत्रित करवा सकते हैं ? यदि रुपये एकत्रित न करवाएं तो जैन 'विश्व भारती' जैसे भारी संस्थान कैसे चलाए जा सकते हैं ? फिर रास्ता तो निकालना ही पड़ता है। कोई गली तो खोजनी ही पड़ती है। पानी के नाम से एलर्जी है तो 'वाटर' नाम से ही काम चलायो । पानी तो चाहिए ही। इसको हम कमजोसे कहें, मायाजाल कहें या दुस्साहस ? नाक को चाहे सीधे हाथ से पकड़ो या गले के पीछे से हाथ को घुमाकर पकड़ो, आखिर पकड़ना तो नाक को ही है। गजब है लाखों समझदार लोग इस यथार्थता के साथ आंख-मिचौनी खेल रहे हैं । या जानते हुए भी आई गई कर रहे हैं। तीर्थङकरों का वर्षीदान हम एक प्रश्न उठाना चाहते हैं-तीर्थंकरों का वर्षीदान, जो प्रत्येक तीर्थकर दीक्षा स्वीकार करने की भावना के बाद एक वर्ष तक खुले हाथों सोनयों का दान करते हैं, वह क्या है ? वह विसर्जन नहीं है क्या ? वह शुभ है या अशुभ ? वह पुण्यबन्ध का हेतू है या पापबन्ध का । अरे भव्यात्माओं ! कुछ तो आँख उघाड़ो। 'एक ऊँट आगे चला पीछे हुई कतार' ऐसा तो मत करो। पाँच-पाँच सौ के एक लाख बोंड देकर पाँच करोड़ एकत्रित करें। किसे आपत्ति है ? पर सही स्थिति अवश्य हृदयंगम होनी चाहिए। मां के गर्भ में ही जिनको तीन ज्ञान होते हैं, दीक्षा देते ही जिनको चौथा मन: पर्यव ज्ञान उत्पन्न होने वाला है, ऐसे परम अवतारी पुरुष के दीक्षा लेने को उद्यत होने पर ख्याति-प्रलोभन-यश-कीर्ति आदि की भावना से कोसों दूर अभेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy