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तीर्थंकरों का वर्षीदान क्या विसर्जन नहीं है ?
- संघ प्रमुख मुनि श्री चन्दनमल जी
पात्रे धर्म-निबन्धनं तदितरे श्रेष्ठं दयाख्यापकं, मित्रे प्रीति-विवर्धनं तदितरे वैरापहारक्षमम् । भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतौ सम्मान-सम्पादकम् भट्टादौ सुयशस्करं वितरणं न क्वाप्यहो ! निष्फलम् ।।
--सूक्तिमुक्तावलिः। आचार्य सोमप्रभ सिन्दूरप्रकर काव्य में दान की महत्ता बतलाते हुए कहते हैं कि वितरण अर्थात् दान कहीं भी निष्फल नहीं है। जैसे-पात्र-दान धर्म का हेतु है, संवर निर्जरा का कारण बनता है। पात्रापात्र विवेचन के बिना दिया हुआ दान दयालुता का सूचक है, यानि वह व्यक्ति दयालु होता है जिसने दीन-दुःखियों की सहायता की है। मित्र को दिया हुन्ना दान प्रीति बढ़ाने वाला है, शत्रु को दिया हुआ दान वैर मिटाने में सक्षम सिद्ध होता है। भृत्य-नौकर-चाकरों को दिया हया दान उनमें अत्यन्त भक्ति उत्पन्न कर देता है। राजा महाराजा आदि को भेंट स्वरूप दिया हया दान सम्मान का सम्पादक है अर्थात् नगर-सेठ, राव आदि का गरिमापूर्ण पद दिलवाता है । वैसे ही चारण-भाट आदि को दिया हआ दान सूयश फैलाता है। अन्त में आचार्य इंगित करते हैं कि बहुत क्या कहा जाय ? अहो ! दान कहीं भी निष्फल नहीं जाता। विसर्जन और दान
आज तेरापंथ के सामने एक ज्वलंत प्रश्न पैदा होता है कि विसर्जन के नाम से किया या करवाया जा रहा दान दान से कुछ अलग है या नहीं। दान और विसर्जन दो शब्द हैं, किन्तु शारदीया नाम माला
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