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________________ 208 ] सकारात्मक अहिंसा या पाप का बन्ध भावों पर निर्भर है। साधू या साध्वी को निकालने के शुभ उद्देश्य से जो साधु पानी में जाता है, वह जीवों को मारने या पीड़ा पहुँचाने की नीयत से नहीं गया, अपितु एक संयमी को बचाने की पवित्र भावना लेकर गया है । किसी की स्वतः हिंसा होने में और संकल्पपूर्वक हिंसा करने में बहुत अन्तर है । इस तरह हिंसा-अहिंसा की स्थूल क्रिया से कर्तव्य की भावना बहुत ऊँची है। यही बात प्रमार्जन (सफाई), प्रतिलेखन, खान-पान, शयन, आदि जीवन की हर प्रवृत्ति के विषय में भी समझ लेनी चाहिए कि ये प्रवृत्तियाँ यतना और अप्रमाद के साथ शुभ उद्देश्य से की जाती हैं, तो उनमें अहिंसा का ही स्वर झंकृत होगा। जैनधर्म में अहिंसा के उत्कृष्ट साधक के लिए पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का विधान है। पाँच समितियाँ प्रवृत्तिरूप हैं और तीन गुप्तियाँ निवृत्तिरूप हैं। सामान्यरूप से अहिंसा के साधक को यह ध्यान रखना है कि वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रवृत्ति करे, उस प्रवृत्ति के साथ अहिंसा के संकल्प को, दया की लहर को और आत्मौपम्य की भावना को जोड़ दे, तो उसकी प्रवृत्ति में एक नई चेतना, नया प्राण और नई जागृति आ जाएगी। ___ मानव-जीवन में निवृत्ति का भी महत्त्व है, पर है वह अमुक प्रसंग पर ही। जब भी मन में स्वार्थ, भोगाकांक्षा, लोभ, क्रोध और अहंकार के बादल उमड़-घुमड़कर आने लगें, तब निवृत्ति ही श्रेयस्कर है। जहाँ विधेयात्मक अहिंसारूप सेवा, परोपकार, करुणा, दया आदि का कार्य करने में अपने चरित्र और शील को दाँव पर लगाने का अवसर पाए वहाँ उससे निवृत्ति धारण करना ही श्रेयस्कर है, किन्तु शुभकार्यों में-शुभभावों से प्रवृत्ति भी की जानी चाहिए। संदर्भ 1. प्राचार्य नेमिचन्द्र । 2. एगो विरई कुज्जा, एगो य पवत्तणं । प्रसंजमे नियत्ति च, संजमे य पवत्तण ।। 3. बृहत्कल्पसूत्र 6/8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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