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निवृत्ति एवं प्रवृत्तिपरक हिसा
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'प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः' अन्तःकरण की आवाज ही अधिक प्रमाणभूत मानी जा सकती है । भगवान् महावीर की दृष्टि में तो ऐसी दशा में तटस्थ रहना कायरता का लक्षण है । यह स्पष्टतया निवृत्ति की भ्रान्ति है ।
भगवान् महावीर का तो स्पष्ट आदेश है कि यदि को कोई साध्वी नदी में डूब रही है, या कोई साधु दुर्घटनाग्रस्त होकर पानी में गिर पड़ा है तो उस समय दूसरे साधु ( जो तैरना जानते हों) तटस्थ होकर खड़े न रहें, वे उक्त साध्वी या साधु को निकालें और सुरक्षित स्थान में ले जाएँ ।
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यहाँ तटस्थवादी साधु यह कह सकता है कि मैंने न तो उक्त साधु या साध्वी को पानी में धक्का दिया है, न उनके डूबने का संकल्प किया है, गिरने वाला अपने कर्मवश गिर गया है, और डूबने लगा है, इसमें मेरा क्या अपराध है ? यदि मैं पानी में कूदूंगा या तैरकर जाऊँगा तो उस हलचल से अनेक जल-जन्तुनों तथा जल के प्राश्रित रहने वाले असख्य सजीवों की भी हिंसा होगी, कई जन्तु भयभीत होंगे, कुचल जाएँगे । इससे तो अच्छा है, मैं तटस्थ ही रहूँ ।
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मैंने पहले कहा था कि ऐसे मौके पर तटस्थ रहने वाला साधु अपने अन्तःकरण में उठने वाली करुणा और ग्रनुकम्पा को दबा देता है । दया के और दया से होने वाली असंख्यगुणी निर्जरा के उत्तम अवसर को वह हाथ से खो देता है । इसलिए स्पष्ट है कि वह घाटे में है । डूबते हुए साधु या साध्वी को बचाने के लिए जल में प्रवेश करने वाले उसके साथी साधु को शुभ संकल्प में लीन होने के कारण पुण्यप्रकृति का बन्ध तो होता ही है, किन्तु अन्तःकरण में जो अनुकम्पा की लहरें उठती हैं, करुणा की अजस्र धारा फूटती है, दया भाव में वह निमग्न हो जाता है, आत्मौपम्यभाव से विभोर हो उठता है; तब वह पाप कर्मों की असंख्य प्रसंख्यगुणी निर्जरा कर लेता है । जल में प्रवेश करने के कारण जलीय या जलाश्रित जीवों की हिंसा अवश्य हुई है; लेकिन वह हिंसा हुई है, संकल्पपूर्वक की नहीं गई है, उससे पापकर्म का बन्धन कम और पुण्यबंध अधिक हुआ है, क्योंकि पुण्य
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