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सकारात्मक अहिंसा
हमने उसको दुःखी या पीड़ित नहीं किया और न ही ऐसा संकल्प किया कि वह दुःखी या पीड़ित हो, ऐसी दशा में अगर हम तटस्थ रहते हैं तो हमें कौन-सी हिंसा या कौन-सा पाप लगेगा ?
इस प्रश्न का समाधान तो जैनधर्म ने पहले ही कर दिया है, 'मित्ती मे सव्वभूएसु', 'अप्पसमं मन्निज छप्पि काए', प्रादि सेवा, दया, करुणा और मैत्री के ये पाठ जो प्रवृत्तिरूप हैं, वे किसलिए दिये हैं ? क्या वे केवल तटस्थ रहने के लिए दिये गये हैं ?
मान लीजिए, कोई जानवर आपके सामने मर रहा है । सम्भव है, उस समय आप दिल को कठोर बना कर बाहर से निवृत्ति भी कर लें, परन्तु ऐसे अवसर पर मन में उसे बचाने के संकल्प स्वाभाविक रूप से आया करते हैं । अगर आप उन शुभ संकल्पों को जबरन दबाते हैं या उनकी उपेक्षा कर देते हैं, रक्षात्मक प्रवृत्ति नहीं करते हैं तो आपके हृदय में प्रादुर्भूत दया कुचली जाती है । इस प्रकार अपनी आत्मा से ही अपनी आत्मा की बहुत बड़ी हिंसा हो जाती है । इस आत्महिंसा को रोकना और अपने आपको उससे बचाना बहुत ही आवश्यक है ।
एक जगह एक आदमी किसी को मार रहा है या एक आदमी जिन्दगी से ऊबकर स्वयं आत्महत्या करने के लिए उद्यत हो रहा है, उसी समय दो व्यक्ति वहाँ आ पहुँचते हैं । उनमें से एक तो तटस्थ होकर एक कोने में खड़ा खड़ा देखने लग जाता है और दूसरा उस मारने वाले या आत्महत्या करने वाले को समझाता है, स्वय बीच में पड़कर उसे बचाने के लिए, उसकी रक्षा के लिए तत्पर होता है । अर्थात् - एक आदमी तटस्थ रहकर निवृत्ति धारण कर लेता है, दूसरा तटस्थ न रहकर बचाने को प्रवृत्ति करता है, आपकी अन्तरात्मा ऐसे अवसर पर किसको अहिंसक या अधिक लाभ वाला कहेगी ?
मान लो, आप पर ही कोई ऐसा ही संकट ना पड़े तो आप तटस्थ रहने वाले को ठीक समझेंगे या आपकी रक्षा के लिए तत्पर व्यक्ति को ?
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