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________________ निवृत्ति एवं प्रवृत्तिपरक अहिंसा 1 205 सहमत नहीं है कि आप किसी शुभ अहिंसक प्रवृत्ति के साथ इस प्रकार की हिंसा, असत्य या कुशील-सेवन की प्रवृत्ति करें। फिर तो वह सारी हो शुभ प्रवृत्ति अशुद्ध और भावहिंसायुक्त हो जाएगी। इसीलिए तो जैनधर्म विधेयात्मक अहिंसा की प्रवृत्ति करने से पहले निषेधात्मक अहिंसा के स्वीकार की बात कहता है । वह कहता है कि प्रवत्ति तो करो, पर पहले अपने दोषों से निवत्ति करके करो । आपका कर्तव्य है कि आप समाज या राष्ट्र की सेवा करें, दीन-दु:खियों पर करुणा करें, जीवदया के कार्य करें, दूसरों के कल्याण के लिए अपनी सुख-सुविधाओं का बलिदान करें, अपने अधिकार की वस्तुओं को भी समर्पित कर दें, स्वयं भूख-प्यास और नींद का कष्ट सहकर भी प्रसन्न रहें, परन्तु उस सेवा, करुणा, दया, परोपकार, दान या सहयोग के नाम पर अपना चरित्र न बेचें, अपने जीवन की उज्ज्वलता को दाँव पर न रखें, अपने जीवन को किसी दुर्व्यसन से ग्रस्त न बनाएँ, अपने चरित्र और जीवन को किसी भी मूल्य पर कलकित न होने दें। अपने चरित्र एवं जीवन को पवित्र व उज्ज्वल रखते हुए सेवा, करुणा आदि जो कुछ भी विधेयात्मक अहिंसा की प्रवृत्ति की जाए, वह शुद्ध प्रवृत्ति होगी, निःस्वार्थ या निष्काम प्रवृत्ति होगी। इस प्रकार की शुद्ध प्रवृत्ति ही समाज के एवं अपने कल्याण के लिए उपादेय होती है। प्रवृत्ति की सीमा के सम्बन्ध में जैनधर्म का यह स्पष्ट दृष्टिकोण है। निवृत्ति की सीमा इसी प्रकार जो निवृत्ति (निषेधात्मक अहिंसा) केवल निष्क्रियता पैदा करती हो, जो केवल अपने ही स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए या लोभवृत्ति से धारण की गई हो, वह निवृत्ति भी निरी आत्म-वंचना है, अशुद्ध निवृत्ति है। कई एकान्त निवृत्तिवादियों का यह कहना है कि कोई व्यक्ति दुःखी या पीड़ित हो रहा है, तो वह अपने ही कर्मों से हो रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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