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सकारात्मक अहिंसा
मान लीजिए, एक व्यक्ति धनाढ्य है । वह दान करता है, उसने यात्रियों के लिए धर्मशाला बनवा दी है, गरीबों की सेवा के लिए उसने कोई संस्था खोल दी है। किन्तु दूसरी ओर से वह शोषण का कुचक्र भी चला रहा है, अपने नौकरों से उनके सामर्थ्य से अधिक काम लेता है, जरा-सी देर से आने पर वेतन काट लेता है । तो ये बातें उस सेवा और दान के साथ कैसे मेल खा सकती हैं ? यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई एक बोतल रक्त निकालकर बदले में एक-दो बदें रक्त दे दे, या सौ-दो सौ घाव करके एक-दो घावों पर मरहमपट्टी कर दे । अतः ऐसे दान और ऐसी सेवा का क्या अर्थ है ?
दूसरी बात यह है कि कोई व्यक्ति समाजकल्याण की प्रवृत्ति करे, लेकिन उसके साथ अपना स्वार्थ पूरा करने, पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा न हो, अपना चारित्र-दोष दबाकर जनता की नजरों में धर्मात्मा, दयालु या सेवाभावी बनने की कल्पना न हो, अथवा सेवा, दया आदि के साथ अपना चारित्रिक पतन न करे, किसी सत्ताधीश या धनाढ्य के मुलाहिजे में आकर उनकी चाटुकारिता करके उच्च पद या प्रतिष्ठा पाने के लिए लोकसेवा या राष्ट्रसेवा न करे या लोकसेवा के नाम पर अपना उल्लू न सीधा करे, धन न बटोरे । ये कुछ सीमाएँ हैं, प्रवृत्ति के साथ-साथ जिनका ध्यान रखना जरूरी है।
मान लीजिए, एक राष्ट्रसेवक दीन दुःखी या राष्ट्र के किसी पदाधिकारी की सेवा कर रहा है, उसकी प्रसन्नता के लिए कुछ ऐसी बातें जरूरी हो रही हैं, जिनसे चारित्रिक पतन की या किसी कुव्यसन में गिरने की सम्भावना है, ऐसी स्थिति में कुछ राष्ट्र या उनकी संस्कृतियाँ तो वैसा करने के लिए सहमत हो जाती हैं, जैसे कि जापान में जासूसी करने और दूसरे राष्ट्रों का भेद लेने के लिए दूसरे राष्ट्र के लोगों के पास ऐसी महिलाएँ भेजी जाती थीं, जो उनके साथ अपने शील का सौदा करके उसके देश की गुप्त बातें निकलवा लेती थीं । विदेश में कई जगह ऐसी प्रथा है कि मेहमान को प्रसन्न करने के लिए गृहिणियाँ उसके साथ ताश खेलती हैं और अनाचार-सेवन करने के लिए भी प्रवृत्त हो जाती हैं । किन्तु जैन धर्म इस बात से जरा भी
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