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निवृत्ति एवं प्रवृत्तिपरक अहिंसा
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कर सकता है, मर्यादा का अतिक्रमण करके नहीं। इसी प्रकार श्रावक की भी मर्यादाएँ हैं; किन्तु गृहस्थ होने के नाते सामाजिक कर्तव्यों को निभाना उसके लिए आवश्यक है । अतः उसके लिए सेवा आदि का विस्तृत क्षेत्र खुला रहता है।
इसलिए अगर आप अहिंसा के सिर्फ नकारात्मक (निवृत्तिरूप) पहलू पर ही सोचेंगे तो यह अहिंसा की अधूरी समझ होगी। अहिंसा की सम्पूर्ण साधना के लिए प्राणिमात्र के साथ मैत्री सम्बन्ध रखना, उसकी सेवा करना, उसे कष्ट से मुक्त करना आदि विधेयात्मक पक्ष पर भी भलीभाँति विचार करना चाहिए। जैनागम प्रश्नव्याकरणसूत्र में जहाँ अहिंसा के 60 एकार्थक नाम दिये हैं वहाँ दया, खंती (क्षमा) रक्खा (रक्षा), अभय, समिई (समिति), जण्णो (यज्ञ) आदि विधेयात्मक (प्रवृत्तिपरक) नामों का भी निर्देश किया गया है। इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययन सूत्र में, मित्ती भूएसु कप्पए' (प्राणिमात्र के साथ मैत्री करो), 'वेयावच्च' (वैयावृत्य-सेवा), समता, दशवैकालिक सूत्र में सर्वभूतात्मभूत, दया आदि शब्द अहिंसा के सन्दर्भ में प्रयुक्त हुए हैं । इसलिए अहिंसा प्रवृत्ति-निवृत्ति-उभयात्मक है। यदि वह प्रवृत्त्यात्मक नहीं है तो अकेली निवृत्ति का न तो कोई मूल्य हो है, न अस्तित्व ही। अनुकम्पा, अभयदान, सेवा आदि शब्द भी अहिंसा के प्रवृत्तिप्रधान रूप हैं । अहिंसा शब्द भाषा-शास्त्र की दृष्टि से निषेधवाचक जरूर है, लेकिन गहन चिन्तन के बाद स्वीकार करना होगा कि अहिंसा प्रवृत्तिपरक या विधेयात्मक भी है। प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों में अहिंसा समाहित है, दोनों में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । जो केवल निवति को ही प्रधान मानकर चलता है, वह अहिंसा की सम्पूर्ण साधना नहीं कर सकता, न ही अहिंसा की आत्मा को परख सकता
प्रवृत्ति की सीमा
जैनधर्म कहता है -प्रवृत्ति करो, पर वह निवृत्तिमूलक होनी चाहिए। यानी प्रवृत्ति (विधेयात्मक अहिंसामय) करते समय पहले देखो कि उस प्रवृत्ति से पहले निषेधात्मक अहिंसा (निवृत्ति) तुम्हारे जीवन में आई या नहीं ?
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