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________________ 202 ] सकारात्मक अहिंसा बह प्रवृत्ति विशुद्ध होगी, अहिंसा से पुनीत होगी, उसका जीवन और अन्तःकरण भी उक्त प्रवृत्ति से निर्मल होगा । व्यक्तिगत आकांक्षाओं, फलासक्ति एवं देहासक्ति से निवृत्ति लेकर अहिंसा की विधेयात्मक प्रवृत्ति करना ही जैनदर्शन का नैतिक विधान है। इसका हार्द यही है कि व्यक्तिगत जीवन में हिंसाजन्य दोषों से निवृत्ति और सामाजिक जीवन में लोकहिताय प्रवृत्ति हो। श्रावक, लोकसेवक, समाज या राष्ट्र का सेवक व्यक्तिगत स्वार्थों, कषायों आदि से दूर रहे और समाज या राष्ट्र की सेवा में प्रवृत्त हो, यही निवृत्ति का रहस्य है। अहिंसा चारित्र का एक अंग है। साधक के चारित्र की जो व्याख्या की गई है, उसमें निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों को बराबर का स्थान दिया गया है । चारित्र न तो एकान्त निवृत्तिरूप है और न ही एकान्त प्रवृत्तिरूप । चारित्र का लक्षण करते हुए कहा है 'असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं !' अर्थात् -अशुभ कार्यों, बुरे संकल्पों, दुर्वचनों एवं कुत्सित आचरणों से निवृत्ति करना और शुभ कार्यो, शुभ संकल्पों, सुवचनों एवं सदाचरणों में प्रवृत्ति करना ही चारित्र है। __ साधक के लिए कहा गया है-"वह एक ओर से विरति (निवृत्ति) करे और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करे । असंयम से निवृत्ति करे और संयम में प्रवत्ति करे।12 सारांश यह है कि एक ओर किसी को कष्ट, दुःख या पीड़ा न पहुँचायो, मारो-पीटो या सतारो मत, न किसी से वैर, द्वेष, मोह, ईर्ष्या आदि रखो, और न किसी से दुर्वचन या कटुवचन कहो. न ही किसी के प्रति बुरा संकल्प व दुश्चिन्तन ही करो। यह अहिंसा का निवृत्तिपरक पहलू है । दूसरी ओर प्राणिमात्र की सेवा, दया, करुणा, क्षमा, प्रेम, मैत्री, समर्पण ग्रादि करना, पीड़ित जनों की पीड़ा दूर करना, उन्हें उचित सहयोग देना, स्वयं जीना और दूसरों को जिलाना आदि अहिंसा का प्रवृत्तिपरक पहलू है। यह स्मरण रखना चाहिए कि श्रमण की अपनी मर्यादा है उसी में रहकर वह दूसरों की सेवा प्रादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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