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________________ निवृत्ति एवं प्रवृत्तिपरक अहिंसा [] महासती श्री पुष्पवतीजी म. निवृत्ति-प्रवृत्ति का रहस्य यह सत्य है कि अहिंसा निवृत्त्यात्मक भी है, लेकिन किसी की हिंसा न करने में ही अहिंसा परिसमाप्त नहीं हो जाती । यह तो उसका एक पक्ष है; निवृत्तिरूप है। अहिंसा की धारा इतने में ही अवरुद्ध नहीं है । अहिंसा अगर प्रवृत्तिशून्य ही है तो उससे समाज में निष्क्रियता, जड़ता एवं असामाजिकता ही पैदा होगी। किन्तु समाज में पारस्परिक सहयोग का कार्य प्रवृत्ति के बिना चल नहीं सकता। मनुष्य के सामने परिवार, समाज, धर्म, संघ और राष्ट्र का उत्तरदायित्व है, सेवा का क्षेत्र है । प्रवृत्तिशन्य अहिंसा को पकड़ने से यह उत्तरदायित्व कैसे पूर्ण हो सकता है ? इसलिए जैनधर्म की अहिंसा न एकान्त निवृत्तिपरक है और न एकान्त प्रवृत्तिपरक । निवृत्ति उसका एक पहलू है; जबकि उसका दूसरा पहलू प्रवृत्ति है। वह निवृत्ति की आधारभूमि पर प्रवृत्ति (विधि) का रूप लेकर आगे बढ़ती है। अहिंसा के ये दोनों रूप एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। अहिंसा भगवती के निवृत्ति और प्रवृत्ति ये दोनों ही चरण हैं । निवृत्ति, प्रवृत्ति के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार करती है, वह प्रवृत्ति के लिए दिशानिर्देश करती है। प्रवृत्ति से पहले निवृत्ति, प्रवृत्ति में विशुद्धि लाने के लिए आवश्यक है । विधेयास्मक अहिंसा में प्रवृत्त होने से पहले व्यक्तिगत जीवन में हिंसा के द्रव्यभावात्मक दोनों पहलुओं से निवृत्ति हुई है या नहीं ? यह देखना बहुत आवश्यक है। अगर अहिंसा के साधक की हिंसा के दोषों से विरति नहीं हुई है और वह लोककल्याण, समाज-सेवा या सामाजिक चेतना के अभ्युदय के लिए प्रवृत्त होगा तो उसकी वह प्रवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकेगी। किन्तु जब साधक अपने मर्यादाहीन व्यक्तिगत स्वार्थ, मोह, दुष, कषाय आदि हिंसा के रूपों से निवृत्त होकर समाज-सेवा या राष्ट्र-सेवा या समाज-कल्याण के लिए प्रवृत्ति करेगा तो उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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