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सकारात्मक अहिंसा
मान लूँ तो मैं तो खुद अपनी सद्गुणाभिमुख विकासशील चेतना शक्ति का गला घोंटता हूँ। एकान्त निवृत्ति संभव नहीं
समाज कोई भी हो वह एक मात्र निवृत्ति की भूलभुलैयों पर न जीवित रह सकता है और न वास्तविक निवृत्ति ही साध सकता है। यदि किसी तरह निवृत्ति को न माननेवाले आखिर में उस प्रवृत्ति के तूफान और अांधी में ही फंसकर मर सकते हैं तो यह भी उतना ही सच है कि प्रवृत्ति का आश्रय लिए बिना निवृत्ति हवा का किला ही बन जाता है । ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही मानव-कल्याण के सिक्के के दो पहलू हैं। दोष, गलती, बुराई और अकल्याण से तब तक कोई नहीं बच सकता जब तक वह दोषनिवृत्ति के साथ-ही-साथ सद्गुणों की ओर कल्याणमय प्रवृत्ति में बल न लगावे । कोई भी बीमार केवल अपथ्य और पुष्टिकुपथ्य से निवृत्त होकर जीवित नहीं रह सकता । उसे साथ-ही-साथ पथ्यसेवन करना चाहिए। शरीर से दूषित रक्त को निकालना जीवन के लिये अगर जरूरी है तो उतना ही जरूरी उसमें नए रुधिर का संचार करना भी है। निवृत्तिलक्षी प्रवृत्ति ___ ऋषम से लेकर आज तक निवृत्तिगामी कहलाने वाली जैनसंस्कृति भी जो किसी-न-किसी प्रकार जीवित रही है वह मात्र निवृत्ति के बल पर नहीं, किन्तु कल्याणकारी प्रवृत्ति के सहारे पर। यदि प्रवर्तक-धर्मी ब्राह्मणों ने निवृत्ति मार्ग के सुन्दर तत्त्वों को अपनाकर एक व्यापक कल्याणकारी संस्कृति का ऐसा निर्माण किया है जो गीता में उज्जीवित होकर आज नए उपयोगी स्वरूप में गांधीजी के द्वारा पुनः अपना संस्करण कर रही है तो निवृत्तिलक्षी जैन-संस्कृति को भी कल्याणाभिमुख आवश्यक प्रवृत्ति का सहारा लेकर ही आज की बदली हुई परिस्थिति में जीना होगा । जैन-संस्कृति में तत्त्वज्ञान और प्राचार के जो मूल नियम हैं और वह जिन आदर्शों को आज तक पूँजी मानती आई है उनके आधार पर वह प्रवृत्ति का ऐसा मंगलमय योग साध सकती है जो सबके लिए क्षेमकर हो।
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