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निवृत्ति और प्रवृत्ति
[ 197 दिया तब वस्तुतः अनासक्त भाव पर ही भार दिया है।
निवृत्ति प्रवृत्ति की पूरक है और प्रवृत्ति निवृत्ति की । ये जीवन के सिक्के की दो बाजुएं (पहल ) हैं। पूरक का यह भी अर्थ नहीं है कि एक के बाद दूसरी हो, दोनों साथ न हों, जैसे जागृति व निद्रा । पर उसका यथार्थ भाव यह है कि निवृत्ति और प्रवृत्ति एक साथ चलती रहती हैं भले ही कोई एक अंश प्रधान दिखाई दे । मन में दोषों की प्रवृत्ति चलती रहने पर भी अनेक बार स्थूल जीवन में निवृत्ति दिखाई देती है जो वास्तव में निवृत्ति नहीं है। इसी तरह अनेक बार मन में वासनाओं का विशेष दबाव न होने पर भी स्थूल जीवन में कल्याणवह प्रवृत्ति का प्रभाव भी देखा जाता है जो वास्तव में निवृत्ति का ही घातक सिद्ध होता है । अतएव हमें समझ लेना चाहिए कि दोष निवृत्ति और सद्गुण प्रवृत्ति का कोई विरोध नहीं, प्रत्युत दोनों का साहचर्य ही धार्मिक जीवन की आवश्यक शर्त है। विरोध है तो दोषों से ही निवृत्त होने का और दोषों में ही प्रवृत्त होने का। इसी तरह सद्गुणों में ही प्रवृत्ति करना और उन्हीं से निवृत्त भी होना, यह भी विरोध है।
असत्-निवृत्ति और सत्-प्रवृत्ति का परस्पर कैसा पोष्य-पोषक सम्बन्ध है, यह भी विचारने की वस्तु है । जो हिंसा एवं मृषावाद से थोड़ा या बहुत अंशों में निवृत्त हो पर मौका पड़ने पर प्रारिणहित की विधायक प्रवृत्ति से उदासीन रहता है या सत्य भाषण की प्रत्यक्ष जवाबदेही की उपेक्षा करता है वह धीरे-धीरे हिंसा एवं मृषावाद की निवृत्ति से सचित बल भी गंवा बैठता है। हिंसा एवं मृषावाद की निवृत्ति की सच्ची परीक्षा तभी होती है जब अनुकम्पा की एवं सत्य भाषण की विधायक प्रवृत्ति का प्रश्न सामने आता है। अगर मैं किसी प्राणी या मनुष्य को तकलीफ नहीं देता पर मेरे सामने कोई ऐसा प्राणी या मनुष्य उपस्थित है जो अन्य कारणों से संकटग्रस्त है और उसका संकट मेरे प्रयत्न के द्वारा दूर हो सकता है या कुछ हलका हो सकता है, या मेरी प्रत्यक्ष परिचर्या एवं सहानुभूति से उसे आश्वासल मिल सकता है, फिर भी मैं केवल निवृत्ति की बाजू को ही पूर्ण अहिंसा
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