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________________ करुणा के विविध रूप उठाऊंगा परन्तु उसको बचा लू ं [ 193 ।' ऐसा विचार करना चाहिए । धनवान है, परन्तु दान नहीं देता, तन्दुरुस्त है, परन्तु तप नहीं करता बूढा हो गया है, परन्तु शीलव्रत का पालन नहीं करता है, समय एवं शक्ति है फिर भी परोपकार के कार्य नहीं करता है बुद्धि है फिर भी तत्त्वज्ञान पाने का पुरुषार्थ नहीं करता है ऐसे मनुष्य के प्रति धिक्कार या तिरस्कार नहीं करना चाहिए । आजकल तिरस्कार करना सामान्य बात बन गई है । द्वेषपूर्ण समालोचना करना साधारण बात बन गई है। चूंकि आजकल मनुष्य का हृदय करुणाहीन बनता जा रहा है । बाह्यदृष्टि से दुःखी जीवों के प्रति करुणा नहीं है तो प्रान्तर दृष्टि से दुःखी जीवों के प्रति करुणा करने की तो बात ही कहां ? निर्धन, रोगी, दीन-हीन जीवों के प्रति दया आती है क्या ? दूसरे नहीं, अपने स्नेही, अपने स्वजन ऐसी स्थिति में आ गये हों, उनके प्रति भी दया आती है क्या ? एक भगत को मैंने कहा : 'आपका भाई बहुत दुखी स्थिति में है, आप उसको सहाय करें तो उसकी स्थिति सुधर जाये ।' झट भगत ने मुझे कहा : 'महाराज सा. आप उसको अच्छी तरह नहीं जानते । वह तो ऐसा ऐसा है ।' भगत ने अपने भाई की खूब बुराई की । मैंने कहा : 'आपने अपने भाई में जो जो बुराई बतायी, क्या आप में ऐसी कोई बुराई नहीं है ? दूसरी बात, भाई बुरा है, उसका परिवार तो वैसा खराब नहीं है न ? आप परिवार को तो सहाय कर सकते हैं न ?' ऐसे हैं भगत लोग ! अब कहिए, आपसे क्या अपेक्षा रक्खू ? एक बात समझ लो, यदि हृदय में मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य भाव धारण नहीं किये तो आपकी कोई भी धर्मक्रिया 'धर्म' नहीं बनेगी | आपको ऐसी भावशून्य क्रियायें दुर्गति से नहीं बचायेंगी । आप विश्वास में रह जाओगे कि 'इतनी इतनी धर्मक्रियायें करते हैं..... अपन नरक में नहीं जायेंगे ।' परन्तु प्राप नहीं बच सकोगे । इसलिये कहता हूँ कि मैत्री वगैरह भावनाओं का अभ्यास करो, ग्रात्मसात् करो । चित्त को शुद्ध करो। शुद्ध चित्त ही धर्म है। शुद्ध चित्त ही पुण्यानुबंधी पुण्य से पुष्ट बनता है । शुद्ध और पुष्ट चित्त ही मोक्षप्राप्ति का असाधारण कारण है । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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