SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1921 सकारात्मक प्रहिंसा दूसरा मनुष्य भूखा मर रहा हो और आप मजे से मिठाई खा सकते हो ? दूसरा मनुष्य नंगा फिर रहा हो और आप खूब शृंगार सजा सकते हो ? दूसरा व्यक्ति रास्ते में धूली पर सो रहा हो और आप बंगले में 'डनलप' की गद्दी पर सो सकते हो ? दूसरा मनुष्य रोग और व्याधि से कराह रहा हो और आप आनन्द प्रमोद कर सकते हो ? यदि 'हां' तो आपका हृदय निर्दय है, करुणाहीन है, पाप परमात्मा जिनेश्वरदेव का धर्म पाने के पात्र नहीं हो । पात्रता के बिना धर्म पाया नहीं जा सकता । धर्म आत्मसात् नहीं बनता। यदि आप दूसरे जीवों के दुःख से दुःखी होते हों, यदि आप दूसरों के दुःख दूर करने का प्रयत्न करते हों, अपना सुख देकर भी दूसरों को दु:खमुक्त करने का कार्य करते हों तो आप सुपात्र हैं, आपकी कोमल आत्मा में धर्मतत्त्व का प्रवेश होगा। मृदु जमीन में पानी उतर जाता है, पथरीली जमीन में पानी प्रवेश नहीं पाता है। __संसार में दुःखी जीव दो प्रकार के होते हैं, एक द्रव्य से दुःखी, दूसरे भाव से दुःखी । जिनके पास खाने को नहीं, पीने को नहीं, पहनने को नहीं, वे लोग द्रव्य से दु:खी हैं । शरीर रोगी है, निर्धनता है, अनाथता है यह सब द्रव्य दुःख है यानी बाह्य दुःख है । जिनके जीवन में धर्म नहीं है, पाप है, वे भाव से दु:खी हैं। हिंसा करते हैं, चोरी करते हैं, दुगचारी हैं, परिग्रही हैं, क्रोध करते हैं, अभिमान करते हैं, माया-कपट करते हैं ये सब प्रान्तर दुःखी हैं। पापाचरण करने वाले प्रान्तर दुःखी हैं। पापकर्म के उदय से जो दुःखी हैं वे बाह्य दुःखी हैं । जिनकों पापकर्मों का उदय है और यहां भी पापाचरण करते हैं वे बाह्य और आन्तर दोनों दृष्टि से दुःखी हैं। ऐसे भी जीव संसार में बहुत हैं, जो यहां दुःखी हैं फिर भी पापाचरण नहीं छोड़ते । ऐसे जीव करुणापात्र हैं। ऐसे जीवों के प्रति अपने हृदय में करुणा होनी चाहिए । 'मोहमूढ़ बनकर यह बेचारा पाप करता है दुर्गति में चला जायेगा, घोर दुःख पायेगा 'ऐसा विचार करना चाहिए । 'मेरा वश चले तो मैं उसको पापों से रोक दू, पापों से बचा लू - भले, मुझे कष्ट उठाना पड़े तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy