SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करुणा के विविध रूप [ 191 अकेला ही मोक्ष में जाऊँ इसमे क्या, सब जीव मोक्ष पायें "परम सुख, परमानन्द, परम शान्ति प्राप्त करें तो बहुत अच्छा !' ऐसे महानुभावों में, संसार के भौतिक सुखों से समृद्ध जीवों के प्रति भी करुणा होती है : 'ये बेचारे संसार के सुखों में लीन हो जायेंगे, राग-रंग और भोगविलास में डब जायेंगे तो इनकी दुर्गति हो जायेगी भविष्य में दुःखी हो जायेगें . मैं उनको इन क्षणिक सुखों का त्यागी बना दू अथवा मैं चाहता हूँ कि वे इन सुखों के त्यागी बनें !' 4. अन्यहित-करुणा-- इस करुणा का क्षेत्र विशाल है । अपितु सर्व जीवों के प्रति हित कामना । सर्व जीवों के प्रति अनुकम्पा अनुग्रहपरकता। प्रीतिजन्य, स्नेहजन्य कोई सम्बन्ध से करुणा नहीं, अपितु सर्व जीवों के प्रति सहज, स्वाभाविक करुणा। मोहजन्य करुणा का मैंने आपको उदाहरण एक ही दिया है, ऐसे अनेक उदाहरण हैं इसके। यह करुणा उपादेय नहीं हैं। ऐसी करुणा से दूसरे जीवों का हित नहीं होता है, अहित होता है । दूसरे जीव सूखी नहीं बनते, दुःखी बनते हैं। इसलिये करुणा ज्ञानजन्या होनी चाहिए । 'अपने उपाय से सामने वाला जीव सुखी बनेगा या दुःखी, इसका ज्ञान होना चाहिए अपने को । दुःख दूर करने के उपायों का सही ज्ञान होना चाहिए। यदि ऐसा ज्ञान नहीं हो तो 'इसका दुख दूर हो', इतनी सद्भावना रखनी चाहिए । दुःखी जीवों के प्रति निर्दयता, कृपाहीनता, उपेक्षावत्ति, मन की एक बहुत बड़ी अशुद्धि है मलीनता है । वह दुःखी है तो मैं क्या करूं? उसके ऐसे पापकर्म होंगे, अतः भोग रहा है ।' यह सोचना घोर निर्दयता है । 'वह तो दुःखी होना ही चाहिए उसने कईयों को दुःख दिये हैं.."अब उसको मरने दो...।' यह निष्ठर हदय का विचार है। 'मुझे उससे क्या लेना-देना है ? वह सुखी हो तो भले, दुःखी हो तो भले"।' यह उपेक्षावृत्ति है, मन की रोगी अवस्था है। ऐसा मन धर्म आराधना के लिए योग्य नहीं है। दुःखी जीवों के प्रति अत्यन्त दया-करुणा होना अनिवार्य माना गया है धर्मक्षेत्र में । दया और करुणा के बिना धर्मक्षेत्र में प्रवेश नहीं हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy