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निवृत्ति और प्रवृत्ति
- पं. सुखलाल संघवी
निवृत्ति-प्रवृत्ति __ जैन कुल में जन्म लेनेवाले बच्चों में कुछ ऐसे सुसंस्कार मातृ स्तन्यपान के साथ बीजरूप में आते हैं जो पीछे से अनेक प्रयत्नों के द्वारा भी दुर्लभ हैं । उदाहरणार्थ --निर्मास भोजन, मद्य जैसी नशीली चीजों के प्रति घृणा, किसी को न सताने की तथा किसी के प्राण न लेने की मनोवृत्ति तथा केवल असहाय मनुष्य को ही नहीं, बल्कि प्राणिमात्र को संभवित सहायता पहुँचाने की वृत्ति । जन्मजात जैन व्यक्ति में उक्त संस्कार स्वतःसिद्ध होते हुए भी उनकी प्रच्छन्न शक्ति का भान सामान्य रूप से खद जैनों में भी कम पाया जाता है, जबकि ऐसे ही संस्कारों की भित्ति पर महावीर, बुद्ध, क्राईस्ट और गाँधीजी जैसों के लोक-कल्याणकारी जीवन का विकास हुआ देखा जाता है। इसलिये हम जैनों को अपने विरासती सुसंस्कारों को पहिचानने की दृष्टि का विकास करना सबसे पहले आवश्यक है। अनेक लोग संन्यासप्रधान होने के कारण जैन-परम्परा को केवल निवृत्ति-मार्गी समझते हैं और कम समझदार खुद जैन भी अपनी धर्म परम्परा को निवृत्तिमार्गी मानने-मनवाने में गौरव लेते हैं। इससे प्रत्येक नई जैन पीढ़ी के मन में एक ऐसा अकर्मण्यता का संस्कार जाने-अनजाने पड़ता है जो उसके जन्मसिद्ध अनेक सुसंस्कारों के विकास में बाधक बनता है। इसलिए प्रस्तुत मौके पर यह विचार करना जरूरी है कि वास्तव में जैन परम्परा की दृष्टि से निवृत्ति तथा प्रवृत्ति का सच्चा माने क्या
उक्त प्रश्नों का उत्तर हमें जैन सिद्धान्त में भी मिलता है और जैन परम्परा के ऐतिहासिक विकास में से भी। सैद्धान्तिक दृष्टि
जैन सिद्धान्त यह है कि साधक अथवा धर्म का पालक व्यक्ति
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