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करुणा के विविध रूप
संसार के प्रत्येक जीवात्मा को मित्र मान लिया, मित्र के प्रति स्नेह जाग्रत हो गया, फिर यदि मित्र दुःख में प्रा गया तो उसका दुःख दूर करने की भावना पैदा होगी ही । ' परदुःखविनाशिनी करुणा' करुणा दूसरों के दुःख मिटाने की प्रेरणा देती ही है । मित्र का दुःख कैसे देखा जाय ! मित्र दुःख में हो और अपन चैन से रहें, ऐसा हो सकता है क्या ?
श्रात्मा की क्रमिक विकास यात्रा में जब आत्मा काल की अपेक्षा से चरम 'पुद्गल परावर्त' में आता है यानी 'अब वह निश्चित - निर्धारित काल में मोक्ष पायेगा,' ऐसा केवलज्ञानी की दृष्टि में निश्चित होता है, तब उस जीवात्मा में तीन विशेषताएँ प्रकट होती हैं ।
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[] मुनि श्री भद्रगुप्त विजय जो
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1. दुःखी जीवों के प्रति अत्यन्त दया । 2. गुणवान् पुरुषों के प्रति द्वेष, और 3. सर्वत्र उचित प्रवृत्ति का पालन ।
देखिये, यहाँ सर्व प्रथम बात कौन-सी बतायी ? दया बतायी न ? दया कहो, करुणा कहो, एक ही बात है । मामूलो दया नहीं, अत्यन्त दया होती है उस जीवात्मा में । मामूली करुणा और अत्यन्त करुणा का भेद समझ लो । दुःखी जीव को देखकर हृदय में विचार आये कि 'बेचारा दुःखी है, कुछ दूं भूखा है " चवन्नी दे दुखा लेगा कुछ !" यह हुई मामूली करुणा ! चूं कि आप के पास उसको भरपेट खिलाने के पैसे होते हुए भी आपने चवन्नी देकर ही संतोष कर लिया ! अत्यंत करुणा क्या करवाती है, जानते हो ? उसको पेटभर के खिलायेगा | चाहे एक रुपया लगो या दो रुपया लगो । करुणा के चार प्रकार ' षोड़शक' ग्रन्थ में आचार्यदेव ने बताये हैं :
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