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सकारात्मक अहिंसा
उसका आचरण करना भूल नहीं बल्कि कर्तव्य है। व्यवहार और धर्म के बीच विरोध नहीं होना चाहिए । धर्म का विरोधी व्यवहार छोड़ देने योग्य है। सब जगह सब समय सम्पूर्ण अहिंसा सम्भव नहीं, ऐसा कहकर अहिंसा को एक ओर रख देना हिंसा, मोह और अज्ञान है। सच्चा पुरुषार्थ तो इसमें है कि हमारा आचरण सदा अहिंसा के अनुसार हो । इस तरह आचरण करने वाला मनुष्य अन्त में परम पद प्राप्त करेगा, क्योंकि वह सम्पूर्णतया अहिंसा का पालन करने योग्य बनेगा और यों देहधारी के लिए सम्पूर्ण अहिंसा बीज रूप ही रहेगी। देह धारण के मूल में ही हिंसा है इसी कारण देहधारी के पालने योग्य धर्म का सूचक शब्द निषेधात्मक अहिंसा के रूप में प्रकट
हुआ है।
(नव जीवन से साभार) सारांश
(1) अहिंसा और दया में उतना ही अन्तर है, जितना सोने और सोने के गहने में, बीज और वृक्ष में। (2) जहां दया नहीं वहां अहिंसा नहीं है। (3) क्रियाहीन (निषेधात्मक) अहिंसा आकाश कुसुम के समान है कारण कि विचार मात्र क्रिया है और विचार रहित अहिंसा नहीं हो सकती (4) हिंसा का पूर्ण त्याग ही अहिंसा नहीं है, हिंसा में कमी करना, घटाना, सीमित करना भी अहिंसा का विस्तार है।
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