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________________ अहिंसा बनाम दया महात्मा गाँधी अहिंसा और दया में उतना ही अन्तर है जितना सोने में और सोने के गहने में, बीज में और वृक्ष में । जहां दया नहीं वहां अहिंसा नहीं । अतः यों कह सकते हैं कि जिसमें जितनी दया है उतनी ही अहिंसा है। अपने पर आक्रमण करने वाले को मैं न मारूँ, उसमें अहिंसा भी हो सकती है और नहीं भी। यदि उसे भयवश न मारूं तो वह अहिंसा नहीं हो सकती। दयाभाव से ज्ञानपूर्वक न मारने में ही अहिसा है। जो बात शुद्ध अर्थशास्त्र के विरुद्ध हो वह अहिंसा नहीं हो सकती। जिसमें परम अर्थ हो वह शुद्ध है। अहिंसा का व्यापार घाटे का व्यापार नहीं होता । अहिंसा के दो पलड़ों का जमा खर्च शून्य होता है। अर्थात् उसके दोनों पलड़े समान होते हैं। जो जीने के लिए खाता है, सेवा करने के लिए जीता है, मात्र पेट पालने के लिए कमाता है वह काम करते हुए भी अक्रिय है। क्रियाहीन अहिंसा आकाश कुसुम के समान है क्रिया हाथ पैर से ही होती हो, ऐसा नहीं, मन हाथ-पैर की अपेक्षा बहुत ज्यादा काम करता है। विचार मात्र क्रिया है। विचार रहित अहिंसा हो ही नहीं सकती। अतएव ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अहिंसा निष्क्रिय है और दया सक्रिय है, बल्कि दोनों ही सक्रिय हैं। सर्वभक्षी जब दया से प्रेरित होकर भक्ष्य पदार्थों की मर्यादा निश्चित करता है तब उस हद तक वह अहिंसा धर्म का पालन करता है। इसके विपरीत जो रूढ़ि के कारण मांसादि नहीं खाता, वह अच्छा तो करता है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें अहिंसा का भाव है ही । जहाँ अहिंसा है वहां ज्ञानपूर्वक दया होनी ही चाहिए । लेकिन अहिंसा धर्म सच्चा धर्म हो तो व्यवहार में हर तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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