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सकारात्मक अहिंसा
है, जिन्होंने जनकल्याण के लिए अपना सर्वस्व दान कर दिया था । सम्राट अशोक के दान का उल्लेख स्तूपों पर और चट्टानों पर अंकित है । सम्राट हर्ष प्रति पञ्चवर्ष के बाद अपना सब कुछ दान कर डालते थे। संन्यासी, तपस्वी, मुनि और भिक्षुत्रों को सत्कारपूर्वक दान दिया जाता था । ब्राह्मणों को भी दान दिया जाता था । साधु, संन्यासी, भिक्षु और ब्राह्मण- ये चारों परोपजीवी रहे हैं । दान पर ही ये सब जीवित हैं । दान की परम्परा विलुप्त हो जाए, तो सब समाप्त हो जाए । स्मृति में कहा गया है, कि गृहस्थ जीवन धन्य है, जो सबके भार को उठाकर चल रहा है। गृहस्थ जीवन पर ही सब संस्थाएँ चल रही हैं । अन्य सब दानोपजीवी हैं, एकमात्र गृहस्थ ही दाता है ।
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