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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
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कैसे सम्भव हो सकता था ? दान का प्रारम्भ इन गुरुकुलों और आश्रमों से हुआ था | फिर मन्दिर आदि धर्मस्थानों को तथा तीर्थभूमि को भी दान की आवश्यकता पड़ी । दान के क्षेत्रों का नया-नया विकास होता रहा और दान की सीमा का विस्तार भी धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा ।
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इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है, कि भारत के तीन विश्वविद्यालय थे - नालन्दा, तक्षशिला और विक्रमशिला । इन विश्वविद्यालयों में हजारों छात्र अध्ययन करते थे और हजारों अध्यापक अध्यापन कराते थे । ये सब विद्यालय भी दान पर ही जीवित थे, दान पर ही चला करते थे । दान के बिना इन संस्थानों का जीवित रहना ही सम्भव नहीं था। राजा और सेठ साहूकारों के उदार दान से ही ये सब चलते रहते थे । साहित्य रचनाओं में भी दान की आवश्यकता पड़ती थी । अजन्ता की गुफाओं का निर्माण, ग्राबू के कलात्मक मन्दिरों का निर्माण बिना दान के कैसे हो सकता था । दान एक व्यक्ति का हो, या फिर अनेक व्यक्तियों के सहयोग से मिला हो, पर सब था, दान पर अवलम्बित ही । कवि को यदि रोटी की चिन्ता बनी रहे, तो वह काव्य की रचना कर ही नहीं सकता। कलाकार यदि जीवन की व्यवस्था में ही लगा रहे, तो कैसे कला का विकास होगा ? कवि को. दार्शनिक को, शिल्पी को और कलाकार को चिन्ताओं से मुक्त करना ही होगा, तभी वह निर्माण कर सकता है । इन समस्याओं के समाधान में से ही दान का जन्म हुआ है । व्यक्ति अकेला जीवित नहीं रह सकता, वह समाजगत होकर ही अपना विकास कर सकता है । अत: दान की प्रतिष्ठा समाज के क्षेत्र में निरन्तर बढ़ती रही है । आज भी संस्थाओं को दान की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कभी पहले थी । संस्था कैसी भी हो, धार्मिक, सामाजिक हो और चाहे राष्ट्रीय हो सब को दान की आवश्यकता रही है और आज भी उसकी उतनी ही उपयोगिता है । शान्तिनिकेतन, अरविन्द आश्रम, विवेकानन्द आश्रम और गांधीजी के आश्रम - इन सबका जीवन ही दान रहा है । जिसके दान का स्रोत सूख गया, उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया । अत: दान की आवश्यकता आज भी उतनी है, जितनी कभी पहले रही है । भारत के इतिहास में अनेक सम्राटों का वर्णन आया
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