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सकारात्मक महिंसा
देना भी एक दान है । यह शरीर, जिससे मनुष्य धर्म की साधना करता है, बिना अन्न के कैसे टिक सकता है ? संयमी को, त्यागी को भी अपने संयम को स्थिर रखने के लिए अन्न की आवश्यकता पड़ती है । अन्न के अभाव में साधना भी कब तक चल सकती है ? कितना भी बड़ा तपस्वी हो, कितना भी लम्बा तप किया जाए, आखिर अन्न की शरण में तो जाना ही पड़ता है । स्वस्थ शरीर से ही धर्म और कर्म किया जा सकता है । रुग्ण काय से मनुष्य न धर्म कर सकता है, और न कोई शुभ या अशुभ कर्म ही कर सकता है। आरोग्य परम सुख है । उसका साधन है, औषध । अतः शास्त्रकारों ने प्रौषध को भी दान में परिगणित किया है, देय वस्तुनों में उसकी गणना की है । ज्ञान, आत्मा का गुण है । वह तो सदा ही संप्राप्त रहता है । अतः ज्ञान का अर्थ है, विवेक । विवेक का अर्थ है - करने योग्य और न करने योग्य का निर्णय करना । यह शास्त्र के द्वारा ही हो सकता है । जिसने शास्त्र नहीं पढ़े, उसे अन्धा कहा गया है । विधि और निषेध का निर्णय शास्त्र के द्वारा ही होता है । अतः शास्त्र का भी दान कहा गया है ।
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इतिहास के संदर्भ में दान- विचार
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भारत देश एक धर्म प्रधान देश रहा है । भारत के जन-जन के जीवन में धर्म के संस्कार गहरे और अमिट हैं। यहां का मनुष्य अपने कर्म को, धर्म की कसौटी पर कस कर देखता है । भारत का मनुष्य धन को, जन को, परिवार को, समाज को, अपने जीवन को भी छोड़ सकता है, परन्तु अपने धर्म को नहीं छोड़ सकता । धर्म उसे अत्यन्त प्रिय रहा है । धर्म के व्याख्याकार ऋषि एवं मुनि सदा नगर से दूर वनों में रहा करते थे । गुरुकुल और ग्राश्रमों की स्थापना नगरों में नहीं, दूर वनों में की गई थी । गुरुकुल और आश्रमों में हजारों छात्र तथा हजारों साधक रहा करते थे । भोजन और वस्त्र आदि की व्यवस्था का प्रश्न बड़ा जटिल था। छात्रों के अध्ययन में किसी प्रकार का विघ्न न हो, और साधकों की साधना में किसी प्रकार की बाधा न पड़े इसलिए राजा और सेठ साहूकार गुरुकुलों को और आश्रमों को दान दिया करते थे । दान के बिना संस्थाओं का चलना
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